जीवन को सफल नही सार्थक बनाए Rajesh Maheshwari द्वारा प्रेरक कथा में हिंदी पीडीएफ

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जीवन को सफल नही सार्थक बनाए

आत्म कथ्य

जीवन और हम

जीवन में

असफलताओं को

करो स्वीकार

मत होना निराश

इससे होगा

वास्तविकता का अहसास।

असफलता को सफलता में

परिवर्तित करने का करो प्रयास।

समय कितना भी विपरीत हो

मत डरना

साहस और भाग्य पर

रखना विश्वास,

अपने पौरूष को कर जाग्रत

धैर्य एवं साहस से

करना प्रतीक्षा सफलता की

पौरूष दर्पण है

भाग्य है उसका प्रतिबिम्ब

दोनो का समन्वय बनेगा

सफलता का आधार।

कठोर श्रम, दूर दृष्टि और पक्का इरादा

कठिनाईयों को करेगा समाप्त

होगा खुशियों के नए संसार का आगमन

विपरीत परिस्थितियों का होगा निर्गमन

पराजित होंगी कुरीतियाँ

होगा नए सूर्य का उदय

पूरी होंगी सभी अभिलाषाएँ

यही हैं जीवन का क्रम

यहीं हैं जीवन का आधार।

कल भी था, आज भी है,

और कल भी रहेगा।

भविष्य का निर्माण

अंधेरे को परिवर्तित करना हैं

प्रकाश में,

कठिनाईयों का करना हैं

समाधान

समय और भाग्य पर

है जिनका विश्वास

निदान है उनके पास

किन रंगों और सपनों में खो गए

सपने हैं कल्पनाओं की महक

इन्हें हकीकत में बदलने के लिए

चाहिए प्रतिभा

यदि हो यह क्षमता

तो चरणों में हैं सफलता

अंधेरा बदलेगा उजाले में

काली रात की जगह होगा

सुनहरा दिन

जीवन गतिमान होकर

बनेगा एक इतिहास

यही देगा नई पीढ़ी को

जीवन का संदेश

यही बनेगा सफलता का उद्देश्य।

उपरोक्त स्वरचित कविताओं की भावनाएँ मेरे जीवन का आधार रही हैं। प्रभु की सर्वश्रेष्ठ कृति है, पृथ्वी पर मानव का जन्म। हम जन्म से मृत्यु तक संघर्षशील रहते है। हम कल्पनाओं को हकीकत में बनाने का प्रयास करते हैं। हमने कभी खुशी कभी गम के बीच जो कुछ देखा सुना और समझा उसे प्रेरणादायक कहानी के माध्यम से प्रस्तुत किया है।

यह हमारी आने वाली युवा पीढी को रोचकता के साथ साथ प्रेरणास्पद भी रहे, यहीं मेरा प्रयत्न हैं। इस पुस्तक में हमने अनेक गणमान्य व्यक्तियों के निजी प्रेरणादायक अनुभवों को भी शामिल किया हैं। मेरा विश्वास है कि यह पुस्तक आपको सदैव प्रेरणा देती रहेगी। इस पुस्तक को सजाने, सँवारने में श्री अभय तिवारी, श्री राजेश पाठक ‘ प्रवीण ‘ एवं श्री देवेन्द्र राठौर का अभूतपूर्व सहयोग प्राप्त होता रहा है, इसलिए मैं इनका हृदय से आभारी हूँ।

राजेश माहेश्वरी

106, नयागांव हाऊसिंग सोसायटी,

रामपुर, जबलपुर ( म.प्र. ) 482008

मोबा.:- 09425152345

अनुक्रमणिका

क्रमांक कहानी का नाम

1. ज्ञान चक्षु

2. दायित्व

3. दिशा दर्शन

4. गुरू की ममता

5. कर्म ही पूजा है

6. स्मृतियाँ

7. राष्ट्र प्रथम

8. सेवा ही धर्म है

9. अनुभव

10. प्रतिभा

11. आंतरिक ऊर्जा जगाइये

12. आत्मबल

13. सद्विचारों की नींव

14. निर्जीव सजीव

15. सफलता की नींव

16. चयन

17. हृदय परिवर्तन

18. समाधान

19. जब जागो तब सवेरा

20. कर्मफल

21. दो रास्ते

22. गुरू दक्षिणा

23. आत्मनिर्भरता

24. दस्तक

25. जनआकांक्षा

26. गुरू शिष्य

27. जब मैं शहंशाह बना

28. मातृ देवो भव

29. जीवन ज्योति

30. परिश्रम

31. जादू की यादें

32. करूणा

33. योजना

34. उदारता

35. कर्तव्य

36. संतोष

37. सफलता के सोपान

38. जनसेवा

39. स्मृति गंगा

40. गुरूता

41. कालिख

42. जीवन दर्शन

43. जीवटता

44. काली मदिरा

45. माँ

46. विनम्रता

47. संघर्ष

48. दूर दृष्टि

49. शौर्य दिवस

50. नवजीवन

51. प्रेरणा

52. ईमानदारी

53. चुनौती

54. जो सुमिरै हनुमत बलवीरा

55. शांति की खोज

56. माफी

57. कल्लू

58. पागल कौन

59. आध्यात्म दर्पण

60. नारी शक्ति

61. कर्तव्य

62. नेता हमारे प्रेरणा स्त्रोत

63. जीवन को सफल नही सार्थक बनाए

64. अहंकार

65. उद्योग और विकास

66. शिक्षक का कर्तव्य

67. मित्र की मित्रता

68. कार्य के प्रति समर्पण

69. जीवन संघर्ष

70. गुरूकृपा

71. पड़ोसी धर्म

72. प्रिवेंशन इज बेटर देन क्योर

73. अजगर

74. तवांग

75. दुखों के उस पार

76. शिक्षा दान महादान

77. संकल्प साधना

78. दृढ़ संकल्प

79. जीवन का वह मोड़

80. वे शब्द

81. जीवन का सत्य

82. बिटिया बनी पहचान

83. आत्मीयता

84. आत्मविश्वास से सफलता

85. महिलाएँ आत्मनिर्भर बने

86. नेत्रहीन की दृष्टि

87. आत्मनिर्भरता

88. वर्तमान में जिए

1. ज्ञानचक्षु

डा. फादर डेविस जार्ज सेंट अलायसिस कालेज के पूर्व प्रधानाध्यापक एवं सेंट अलायसिस इंस्टीट्यूट आफ टेक्नोलाजी के वर्तमान डायरेक्टर है। उन्होने बताया कि विज्ञान धर्म के बिना अधूरा है और धर्म विज्ञान के बिना अंधा होता है आज वर्तमान समय में विश्व के वातावरण में तापमान के बढ़ने से सारे विश्व की आबादी को खतरा बढ़ गया है। यदि हमको धरती माँ की रक्षा करना है तो विज्ञान एवं धर्म को एक साथ एक मंच पर लाकर आबादी को शिक्षित करना चाहिए एवं जाति, धर्म, संप्रदाय एवं देश की सीमाओं को भूलकर संपूर्ण विश्व को एक मानते हुए मानवता की रक्षा के लिए आगे आना चाहिए।

उन्होंने आगे बताया कि 2005 में उन्हें पेंसिलुवानिया विश्वविद्यालय में 90 वर्षीय वैज्ञानिक चार्लिस टाउनेस के उद्बोधन को सुनने का अवसर प्राप्त हुआ। जिससे उन्हें इस दिशा में काम करने के लिए आगे बढ़ने की प्रेरणा मिली। कुछ वैज्ञानिको का उस सभा में मत था कि पृथ्वी समाप्त हो जाएगी। इसका जवाब देते हुए श्री टाउनेस ने बताया कि पृथ्वी कभी खत्म नही होगी क्योंकि उसमें स्वयं को वापिस पुनर्निर्मित करने की क्षमता है।

इसी दौरान गोष्ठी में उनकी मुलाकात यूगोस्वालिया के एक वरिष्ठ वैज्ञानिक से हुई। उन्हें जब पता हुआ कि वे भारत से आये हैं तो उन्होने बहुत विनम्रता से पूछा कि क्या आप महात्मा गांधी के जन्म भूमि वाले देश से आये हैं ? फादर डेविस ने गर्व से कहा कि हाँ मैं उसी भूमि से आ रहा हूँ जहाँ सत्य और अहिंसा के पुजारी का जन्म हुआ था। उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि हम भारतवासी गांधी जी को भुलाते जा रहे हैं और विदेशी उनको सम्मान और श्रद्धा की दृष्टि से देख रहे है। जब वे सेंट अलायसिस कालेज में 19 वर्ष तक प्रधानाध्यापक थे तो वे अपने छात्रों को कहते थे कि शिक्षा का उद्देश्य हमारे अंदर छिपी हुई प्रतिभा को सकारात्मक रूप से बाहर लाना है। हमारा दृष्टिकोण जितना अच्छा होगा जीवन में प्रगति के पथ पर हम उतनी ही तेजी से आगे बढ़ सकेंगें।

जीवन में हमेशा याद रखिए कि:-

मैंने मजबूती माँगी तो प्रभु ने मुझे मजबूत बनाने के लिए कठिनाईयाँ दी।

मैंने बुद्धि माँगी प्रभु ने मुझे समस्याओं को निदान करने के लिए दे दिया।

मैंने संपन्नता माँगी तो प्रभु ने मुझे दिमाग देकर इस दिशा में आगे बढ़ने की सीख दे दी।

मैंने प्रभु से साहस माँगा प्रभु ने मुझे संकटों को निवारण करने हेतु दे दिया।

मैंने प्यार माँगा तो प्रभु ने कठिनाई में जी रहे लोगों की मदद करने का मौका प्रदान किया।

मैंने खुशहाली माँगी प्रभु ने मुझे अवसर दे दिया।

मैंने जो माँगा वो नही मिला परंतु मुझे जीवन में जो आवश्यकताएँ थी वो सब कुछ मिल गया। फादर डेविस ने युवाओं के लिए संदेश दिया है कि जीवन को निडर होकर जियो, हर कठिनाईयों का सामना करो और मन में यह दृढ़ निश्चय रखो कि ऐसा कोई काम नही जिसे तुम नही कर सकते।

2. दायित्व

प्रसिद्ध उद्योगपति श्री कैलाश गुप्ता अपने व्यापार व उद्योग से होने वाले लाभ को अपनी संपत्ति मानते थे किन्तु सन् 1986 में उन्होंने अपने निवास पर भगवद्गीता का परायण कराया। भगवद्गीता के परायण में जब उन्हें यह संदेश समझ में आया कि हम अपनी संपत्ति के केवल ट्रस्टी हैं, हमारी संपत्तियाँ वास्तव में हमारी नहीं है। इस कथन से उनके जीवन और चिन्तन की दिशा ही बदल गयी। उनके मन में यह बात गहरे पैठ गई कि उनका कर्तव्य है वे इस आय से अपनी न्यूनतम आवश्यकताओं की पूर्ति के उपरान्त जो भी शेष बचता है वह सामाजिक हित में उपयोग में लाएं।

आज व्यापार और उद्योग के संचालन में घूसखोरी एक अनिवार्य अंग हो गया है। यह माना जाने लगा है कि इसके बिना व्यापार और उद्योग का सुचारू संचालन संभव ही नहीं है। लेकिन गुप्ता जी का मानना है कि यदि आप रातों रात करोड़ों-अरबों कमाना चाहते हैं तो अलग बात है, यदि आप सीमित लाभ से संतुष्ट रहकर अपने व्यापार और उद्योग को बढ़ाते हैं तो फिर आपको बेइमानी का रास्ता अपनाने की कोई आवश्यकता नहीं रह जाती। आप अपने सिद्धांतों पर अडिग रहकर ईमानदारी पूर्वक भी पर्याप्त धनोपार्जन कर सकते हैं। वे इसे स्वीकार करते हैं कि उनके विचारों में परिवर्तन से समाज में कोई बड़ा परिवर्तन न हुआ है और न ही होगा किन्तु यह नहीं सोचना चाहिए कि समाज हमें क्या दे रहा है बल्कि हमें यह सोचना चाहिए कि हम समाज को क्या दे रहे हैं।

3. दिशा-दर्शन

मध्यप्रदेश के पूर्व महाधिवक्ता श्री रविनन्दन सिंह सीधी जिले से सांसद भी रह चुके हैं। उनके जीवन में उनके अग्रज का एक कथन उनके जीवन का महत्वपूर्ण मोड़ बन गया। वे कहते हैं कि-

एम. एस. सी. (ए. जी.) प्रथम श्रेणी में प्रथम स्थान प्राप्त करने के उपरान्त अमेरिका के किसी सर्वमान्य विश्वविद्यालय से पी. एच. डी. करने की प्रबल आकांक्षा थी। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय में पी. एच. डी. में रजिस्ट्रेशन भी हो गया। साथ ही आई आई टी खरगपुर में भी स्कालरशिप के साथ पी. एच. डी. मे दाखिला मिल गया। पैसों के अभाव में कैलीफोर्निया नहीं जा सका और आई आई टी खरगपुर का पंजियन विलम्ब के कारण निरस्त हो गया। मैं इससे बहुत विचलित हुआ।

उनके बड़े भाई साहब जो सीधी कोर्ट में वकालत करते थे, एक दिन बड़े सहज भाव से कहने लगे- तुम वकालत करके हाई कोर्ट में वकालत करने का क्यों नहीं सोचते?

करने तो लगता पर सोचता हूँ क्या वकालत ईमानदारी से की जा सकती है?

वकालत हो या राजनीति दोनों में सच्चाई और ईमानदारी के साथ चलकर समाज सेवा की जा सकती है और इसमें पर्याप्त अर्थ तो मिल ही जाता है।

उनकी बात मुझे एक नया रास्ता दिखला गई। श्री सिंह रिसर्च की बात छोड़कर वकालत के क्षेत्र में आने की तैयारी करने लगे। सर हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय सागर से एल. एल. बी. और जबलपुर विश्वविद्यालय से एल. एल. एम. किया। उन्होने सीधे हाईकोर्ट से वकालत प्रारम्भ की। सूत्र वही रहे जो भाई साहब ने दिये थे- ईमानदारी और सच्चाई।

परिस्थितियाँ बदलीं, उन्हें सीधी जिले से सांसद का चुनाव लड़ने की चुनौती को स्वीकार करना पड़ा। उन्हें सीधी की जनता ने अपना प्रतिनिधि चुनकर संसद में स्थान दिलवाया। समय के साथ ही जबलपुर उच्च न्यायालय में वरिष्ठ अधिवक्ता मनोनीत किया गये। फिर एक समय वह भी आया जब उनसे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश पद के लिये सहमति मांगी गई। उन्होंने उसे विनम्रता पूर्वक अस्वीकार किया था। बाद मे उन्हें मध्यप्रदेश के महाधिवक्ता के रुप में नियुक्त किया गया। आज भी सिंह साहब अपने भाई साहब द्वारा दिये गये ईमानदारी और सच्चाई के सूत्र के साथ समाज सेवा कर रहे हैं जिसने उन्हें जीवन में संतोष और आनन्द प्रदान किया है।

4. गुरु की ममता

समकालीन हिन्दी साहित्य में आचार्य भगवत दुबे एक हस्ताक्षर हैं। उनके व्यक्तित्व एवं कृतित्व पर तीन डिजर्टेशन, दो एम. फिल. एवं दो पी. एच. डी. हो चुकी हैं। अभी भी शोध कार्य जारी है। यदि उनके जीवन में उनके गुरु सनातन कुमार बाजपेयी न आये होते तो वे आठवीं पास ग्राम सेवक होते।

उनका गांव डगडगा हिनौता नगर से 16 किलोमीटर दूर बियावान में था। प्रायमरी स्कूल तीन किलोमीटर दूर दूसरे गांव में था जहां से उन्होंने चौथी पास की और नगर में अपने मामा के पास रहकर आठवीं तक की शिक्षा प्राप्त कर तीस रुपये प्रतिमाह पर ग्राम सेवक का प्रशिक्षण प्राप्त करने लगे। वे अपने घर में सबसे बड़े थे। उनके तीन भाई और दो बहनें थीं। माता-पिता अनपढ़ और गरीब थे। तीस रुपये में से 18-20 रुपये घर भेजते और अपने हाथों से खाना बनाकर नौकरी करते।

एक दिन बाजार में उनके गुरुदेव श्री सनातन कुमार बाजपेयी ने उन्हें देखा। भगवत दुबे पढ़ने में होशियार थे और प्रथम आते थे इसलिये उनके गुरुओं के वे स्नेहपात्र रहे। बाजपेयी जी ने उन्हें आवाज दी - भगवत।

दुबे जी ने जाकर उनके चरण स्पर्श किये। उन्होंने उनका हालचाल पूछा और कहा- आजकल दिखते नहीं, कहां हो? कहां पढ़ते हो?

भगवत दुबे जी ने कहा कि मैंने पढ़ाई छोड़ दी है। ग्राम सेवक के पद पर नौकरी कर रहा हूँ। तीस रुपये प्रतिमाह मिल जाता है।

इतने में क्या होगा? आगे पढ़ाई करो!

दुबे जी ने कहा कि मेरे माता-पिता गरीब हैं। वे आगे की पढ़ाई का खर्च नहीं उठा सकते।

उन्होंने समझाया और तब तक समझाया जब तक दुबे जी की समझ में नहीं आ गया। दुबे जी ने हाई स्कूल में दाखिला ले लिया। उनके गुरु जी ने उनकी आर्थिक सहायता भी की और उन्हें अंग्रेजी भी पढ़ाई। उन्होंने विशेष योग्यता के साथ हायर सेकेण्डरी परीक्षा उत्तीर्ण की और सरकारी मेडिकल कालेज में नौकरी करने लगे। उन्होंने एम. ए., एल. एल. बी. किया। उन्हें पदोन्नति मिली और कालान्तर में वे कविताएं लिखने लगे। अब तक उनकी 37 पुस्तकें छप चुकी हैं।

यदि उनके जीवन में सनातन बाजपेयी जैसे गुरु न मिले होते तो वे तो आठवीं के बाद पढ़ाई छोड़ चुके थे। फिर भगवत दुबे आज के आचार्य भगवत दुबे न होते।

5. कर्म ही पूजा है

डा के सी देवानी ख्याति प्राप्त शल्य चिकित्सक हैं। वे अपने मिलनसार स्वभाव, मधुर वाणी व सेवाकार्य के लिये समर्पित व्यक्तित्व के रूप में भी जाने जाते हैं। उनके जीवन की एक घटना ने उन्हें चिकित्सा के क्षेत्र में नई सोच के साथ आगे बढ़ने की ओर प्रेरित किया। आज से कई वर्ष पूर्व वे जबलपुर मेडिकल कालेज में शल्य चिकित्सा विभाग में कार्यरत थे उनसे वरिष्ठ चिकित्सक डा अनिल मिश्रा द्वारा बताया गया कि आज हमें चार पाँच मरीजों की आकस्मिक शल्य चिकित्सा करनी पडेगी अन्यथा उनका जीवन खतरे में आ जाएगा। उनके निर्देशानुसार डा. देवानी ने सभी व्यवस्थाएँ पूर्ण करके उनके सहयोग एवं मार्गदर्शन में शल्य चिकित्सा प्रारंभ कर दी। शाम हो चुकी थी एवं दीपावली का दिन होने के कारण डा. देवानी अपने घर जाकर लक्ष्मी पूजन करने हेतु डा. अनिल मिश्रा से निवेदन कर रहे थे।

डा. मिश्रा ने उनको समझाते हुए कहा कि सेवा से बड़ी कोई दूसरी पूजा नही होती। यदि हम मरीजों को बिना शल्य चिकित्सा के छोडकर जाते हैं तो हो सकता है कि रात में इन्हे असीम कष्ट सहना पडे जो कि इनके जीवन के लिये घातक भी हो सकता है। हम सभी चिकित्सकों ने डिग्री प्राप्त करते समय यह वचन दिया है कि हम सेवा के लिये सदैव समर्पित रहेंगे। लक्ष्मी जी की पूजा में धन प्राप्ति की भी कामना रहती है इतना कहकर उन्होने एक रूपये निकालकर उसे अपनी दोनो आंखों पर लगाकर लक्ष्मी जी का ध्यान करने के लिये कहा और बोले, लो लक्ष्मी जी का पूजन हो गया अतः अपना पूरा ध्यान पुनः शल्य चिकित्सा की ओर केंद्रित करो और तुम प्रभु का स्मरण करते हुये शल्यक्रिया संपन्न करते रहो। डा. देवानी ने अपने वरिष्ठ चिकित्सक के सुझाव का सम्मान करते हुये पूरी रात अपने को इस कार्य में व्यस्त रखा एवं प्रातःकाल कार्य समाप्त हो जाने के बाद डा. मिश्रा की इजाजत लेकर अपने घर चले गए।

घर पहुँचने पर उन्होने जब अपने पिताजी को इस वस्तु स्थिति से अवगत कराया तो उनकी प्रसन्नता का ठिकाना नही था। उन्होने आशीर्वाद देते हुए कहा कि तुम जीवन पर्यंत इसी प्रकार सेवारत रहना मैंने तुम्हें डाक्टरी की शिक्षा इसलिये दिलायी है कि तुम गरीबों, जरूरतमंदों एवं सर्वहारा वर्ग के लिये समर्पित रहो जिनके पास धन होता है उन्हें तो अच्छे से अच्छी चिकित्सा सुविधाएँ प्राप्त हो जाती हैं परंतु धन विहीन व्यक्ति अपेक्षित चिकित्सा से वंचित रहकर धनाभाव के कारण परेषान होता रहता है। ऐसे जनमानस की सेवा करना हमारा कर्तव्य है। यदि तुम लक्ष्मी पूजा के लिये आपरेशन छोड़कर आ जाते और यदि रात में किसी मरीज की मृत्यु इस कारण हो जाती तो तुम जीवन में कभी भी अपने आप माफ नही कर पाते। इस घटना ने उनके जीवनपथ में गहरी छाप छोडी और आज भी वे कर्म ही पूजा है, के सिद्धांत को मानते हुए इस पुनीत कार्य में लगे हुए हैं।

6. स्मृतियाँ

श्री हर्ष पटैरिया ख्यातिलब्ध उद्योगपति हैं। वे सफल उद्योगपति होने के साथ ही धर्म को मानने और समझने वाले, संगीत और सांस्कृतिक कार्यक्रमों में गहरी रूचि रखने व सहयोग करने वाले व्यक्तित्व हैं। उनकी माता जी श्रीमती चन्द्रप्रभा पटैरिया एक संवेदनशील और वात्सल्य से ओतप्रोत नारी थीं जिनका वात्सल्य उन सभी बच्चों और नौजवानों के प्रति था जिनमें कोई भी प्रतिभा हो और जो अपनी प्रतिभा को निखारने के लिये प्रयत्नशील हो।

वैसे तो बचपन विस्मृतियो का संसार है। बच्चे किसी भी बात को चट भूल जाते हैं। पल भर में खुश हो जाते हैं पल भर में रुठ जाते हैं। लेकिन उसी बचपन में यदि कोई बात दिल में उतर जाए तो फिर वह बच्चा उस बात को जीवन में कभी नहीं भूलता। हर व्यक्ति के मानस पटल पर कुछ छवियाँ अंकित होती हैं जो उसके बचपन में उसके अंतःकरण में अंकित हुई थीं। शायद इसी को संस्मरण कहते हैं। संस्मरण सिर्फ बचपन भर के नहीं होते हैं, वे जवानी के भी होते हैं, प्रौढ़ावस्था के भी होते हैं और बुढ़ापे के भी होते हैं। हमारे संस्मरणों में कुछ संस्मरण ऐसे भी होते हैं जिनका संबंध हमारी विचारशीलता और हमारी मानसिकता से होता है। जिनका हमारे जीवन पर बहुत गहरा प्रभाव होता है। जिनने हमारे चिन्तन और हमारे जीवन को एक नयी दिशा दी होती है। कभी-कभी ये घटनाएं अत्यन्त संक्षिप्त भी हुआ करती हैं।

आज भी बच्चों में रेलगाड़ी, उसकी कूकी, स्टेशन और वहाँ के वातावरण के प्रति रोमांचक उत्सुकता देखी जाती है। जिस समय वे बच्चे थे उस समय कोयले के इन्जन से चलने वाली रेलगाड़ी चला करती थी। जब वह चलती थी तो एक स्वर में झुक-झुक आवाज करती थी। बीच-बीच में कूकी मारती थी। बच्चे और मिमिकरी कलाकार रेलगाड़ी की उन आवाजों की नकल करके मन बहलाते और प्रसन्न हुआ करते थे।

हर्ष जी ने बताया कि उस समय मैं भी बच्चा था, मेरे मन में भी रेलयात्रा के प्रति तीव्र आकर्षण था। मैं अपनी माताजी श्रीमती चन्द्रप्रभा पटैरिया के साथ बाम्बे हावड़ा मेल के वातानुकूलित डिब्बे के कूपे में बैठा रेलगाड़ी के चलने की प्रतीक्षा कर रहा था। जैसे ही रेलगाड़ी चली मेरी खुशी का तो ठिकाना नहीं रहा। मुझे ऐसा लग रहा था जैसे में स्वर्ग की सैर कर रहा हूँ। तभी माताजी ने मुझसे पूछा-

कैसा लग रहा है?

मैंने कहा- बहुत अच्छा।

वे बोलीं- अगर परिश्रम करोगे तो जीवन भर ऐसे ही अच्छे रहोगे।

उस समय मैं इस कथन का अर्थ नहीं समझ पाया था किन्तु यह वाक्य मेरी स्मृति में अमिट रुप से अंकित हो गया। माता जी का वह कथन मुझे याद तो तभी हो गया था किन्तु उसका अर्थ बाद में समझ में आना प्रारम्भ हुआ जब मैंने व्यवहारिक जीवन में प्रवेश किया। जब मेरे जीवन को उत्तरदायित्वपूर्ण अर्थ मिले। आज भी लगता है जैसे मैं उस कथन को पूरी तरह नहीं समझ पाया हूँ क्योंकि माता जी ने उस दिन मेरे जीवन में परिश्रम के महत्व को बैठा कर मुझे जीवन में सफलता का रहस्य समझा दिया था।

7. राष्ट्र प्रथम

इन्जीनियर डी. सी. जैन एक सुपरिचित नाम है। वर्तमान में वे एक निजी इंजीनियरिंग कालेज के संस्थापक एवं निर्देशक हैं। वे मेकेनिकल इन्जीयनिरिंग की डिग्री लेकर 1957 में म.प्र.राज्य शासन की सेवा में आ गए। उन्हें 1994 में खरखरा परियोजना में कार्यपालन यंत्री के रूप में पदस्थ किया गया।

दुर्ग में स्थित भिलाई स्टील प्लांट में उसकी उत्पादन की क्षमता को दुगना करने के लिये अतिरिक्त पानी की आवश्यकता थी। इसके लिये खरखरा जलाशय का काम दो साल में पूरा करना था। भिलाई स्टील प्लांट रसिया सरकार ने भारत में लगाया था। इस परियोजना के लिये उनकी शर्त थी कि उनके देश की मशीनें खरीदकर उससे बांध बनाया जाये तथा भविष्य के लिये भी हैवी अर्थ मूविंग मशीनें उनसे ही खरीदी जायें। खरखरा जलाशय के लिये मशीनों का टेंडर रसिया सरकार को मिला और उसमें यह शर्त रखी गई कि उनकी मशीनों को चलाकर देखा जाएगा और अच्छी रिपोर्ट आने के बाद अन्य परियोजनाओं के लिये मशीनें खरीदी जावेंगी।

खरखरा परियोजना के लिये मशीनें विशाखापट्टनम पोर्ट के द्वारा खरखरा जलाशय पहुचाई गईं। इस काम को करने का दायित्व श्री जैन को सौंपा गया।

मशीनें मिट्टी खोदने और भरकर बांध के ऊपर लाकर डालने के काम में लगाई गईं। मशीनों के लोहे की क्वालिटी अच्छी नहीं थी। वे कुछ ही महीनों में एक के बाद एक खराब होने लगीं। श्री जैन और उनकी टीम के सदस्य बड़ी मेहनत और ईमानदारी से उन्हें सुधारते और चलाते किन्तु उनमें इतने अधिक मैन्यूफैक्चरिंग डिफैक्ट थे कि उनको ठीक करते-करते वे परेशान हो गए। इसी बीच दिल्ली से सेन्ट्रल वाटर पावर कमीशन से पत्र आये कि मशीनें कैसी चल रहीं हैं इसकी विस्तृत रिपोर्ट भेजो।

श्री जैन ने एक विस्तृत रिपोर्ट सेन्ट्रल वाटर पावर कमीशन नई दिल्ली को भेज दी। उस रिपोर्ट में लिखा कि मशीनों में बहुत खराबी है, इनका कार्य संतोषजनक नहीं है। दिल्ली में इस रिपोर्ट को पढ़ते ही हड़कम्प मच गया। ये मशीनें रसिया सरकार डालर के बदले रूपयों में दे रही थी। श्री जैन को रसिया एजेन्सी से चर्चा के लिये नई दिल्ली बुलाया गया। उन्होंने उनसे चर्चा में उन्हें बताया कि मशीनों में क्या-क्या खराबी है और मशीनें बिलकुल नहीं चलती हैं। उनके पास जितनी मशीनें थीं उनमें से तीस प्रतिशत ही चलती थीं बाकी हमेशा सुधार कार्य के लिये खड़ी रहती थीं। पुर्जे बदलने के लिये भारतीय एजेण्ट के फोरमेन और मेकेनिक भी हमेशा परियोजना में ही लगे रहते थे।

उन पर दबाव बनाया जाने लगा कि वे लिखकर दे दें कि खरखरा जलाषय में रसिया मशीनें संतोषजनक चल रही हैं। चारों ओर से दबाव के साथ लालच भी दिया जा रहा था किन्तु श्री जैन ने झूठा प्रमाणपत्र देने से साफ मना कर दिया। वे जानते थे कि उनके एक झूठे प्रमाणपत्र से करोड़ों रूपये मूल्य की बेकार मशीनें भारत में आ जाएंगी। उन्हें यह भी जानकारी मिली कि दूसरी परियोजना के लिये मशीनें काला सागर के बंदरगाह में रवाना होने के लिये खड़ी हैं। किन्तु टेण्डर की शर्तों के अनुसार जब तक खरखरा परियोजना के इन्जीनियर का प्रमाण पत्र नहीं आ जाता तब तक टेण्डर पर मशीनें भेजने के लिये हस्ताक्षर नहीं हो सकते।

श्री जैन का मत था कि देश प्रथम है, देश का विकास प्रथम है अतएव वे अपनी जिद पर अड़े रहे। उन्होंने झूठा प्रमाण पत्र नहीं दिया और अन्त में रसिया सरकार से अतिरिक्त मशीनों की खरीदी नहीं की गई। खरखरा जलाशय पूर्ण होने के बाद श्री जैन को स्थानान्तरित कर दिया गया। रसियन मशीनें जहाँ-जहाँ भेजी गईं सब खड़ी रहीं। कोई भी इन्जीनियर उनसे काम नहीं करा सका। अंत में उन मशीनों को तौलकर लोहे के भाव में रायपुर और दुर्ग के कारखानों से कबाड़ियों को बेच दिया गया।

श्री जैन को आज भी इस बात की अत्यधिक प्रसन्नता है कि उन्होंने अपने देश को करोड़ों की क्षति से बचा लिया। वे लालच में नहीं पड़े। वे आज भी कहते हैं- देश प्रथम है, देश का विकास प्रथम है।

8. सेवा ही धर्म है

एक वृद्ध व्यक्ति को जो कि पेट फूलने के कारण असीम पीड़ा में थे उन्हें लेकर उनके परिवारजन शासकीय चिकित्सालय में पहुँचे थे। वहाँ पर चिकित्सकों ने उनकी जाँच के उपरांत बताया कि मल ना निकलने के कारण इन्हें यह तकलीफ हो रही है, उन सज्जन की अधिक उम्र होने के कारण दवाईयों से इसका इलाज संभव नही था। उन्हें चिकित्सकों ने सलाह दी कि इसका एकमात्र निवारण, कृत्रिम तरीके से मल निकालना है तभी इन्हें तकलीफ से मुक्ति मिल सकेगी।

इस कार्य हेतु उन्होंने एक सेवक को बुलाकर कार्यविधि समझा दी। उसने अपने हाथ में दस्ताने पहन कर अपनी उंगलियों से मल निकालना प्रारंभ कर दिया और इस कारण खून भी रिसने लगा। उनके परिवारजन यह देखकर बहुत द्रवित हो गये और उनके पोतों ने यह निर्णय लिया की इस कार्य को वह स्वयं अपने हाथों से करेगें ताकि दादाजी को कष्ट कम से कम हो सके। उनके दो पोते थे उनमें से एक ने मल निकासी का कार्य अपने जिम्मे लिया और दूसरे ने उनकी साफ सफाई एवं मालिश का भार अपने ऊपर ले लिया, और उन्हें अस्पताल से वापस अपने घर ले आये।

वे दोनो बड़ी लगन, परिश्रम एवं सेवाभाव से यह कार्य लगभग एक माह तक करते रहे जब तक उनके दादाजी जीवित रहे। उनके दोनो पोतों के पिताजी का निधन हृदयाघात के कारण पहले ही हो चुका था और इसका गहरा सदमा दादाजी के मन पर पड़ा था जिसके कारण उन्होंने बिस्तर पकड़ लिया था।

इस सेवा के प्रति इतने समर्पण का कारण उनके परिवार की सभ्यता, संस्कृति व संस्कार थे जो कि उन्हें विरासत में मिले थे। उनके दादाजी के जीवनकाल में उनकी माँ को टी.बी हो गयी थी। यह घटना काफी पुराने समय की बात है जब टी.बी को छूत की बीमारी समझा जाता था और मरीज के पास आने से भी लोग कतराते थे। ऐसे समय में रिक्शे वाले भी टी.बी के मरीज को बैठाकर अस्पताल तक ले जाने में भी संकोच महसूस करते थे। दादाजी ने अपनी स्वर्गीय माँ की निस्वार्थ भाव से बहुत सेवा की थी उनके दोनो पोतो की माँ ने उन्हें बताया था कि ऐसी विपरीत परिस्थितियों में उनके दादाजी अपनी माँ को कंधे पर लेकर शासकीय चिकित्सालय केंटोनमेंट बोर्ड ले जाया करते थे। उन्होने आजीवन माँ की सेवा सुश्रुषा में कभी कोई कमी नही होने दी परंतु अंत में उनकी माँ का देहावसान इस रोग के कारण हो गया था।

यह घटना इस बात की ओर इंगित करती है कि प्रत्येक पुत्र को अपने माता पिता की अंतिम समय तक सेवा करना चाहिए उसकी सेवा भावना का प्रभाव संतानों पर भी पड़ता है इसलिए परिवार की सेवा भावना का प्रभाव उनके पोतों के संस्कारों में था जिस कारण वे अपने दादाजी की इतनी कठिन सेवा के लिये समर्पित रहे। यह सच्ची घटना जबलपुर शहर के मेरे मित्र एवं ख्यातिलब्ध व्यवसायी श्री प्रेम दुबे के परिवार की है जिससे प्रेरणा मिलती है कि हमें अपने बुजुर्गों की सेवा के प्रति सदैव समर्पित रहना चाहिये।

9. अनुभव

इंजी सुरेंद्र श्रीवास्तव एक अच्छे आर्किटेक्ट माने जाते हैं। उनके कुशल मार्गदर्शन में नगर की अनेक इमारतों का निर्माण संपन्न हुआ है। एक सहकारी बैंक का निर्माण भी उनके मार्गदर्शन में हो रहा था। एक दिन उस निर्माणाधीन इमारत के निरीक्षण हेतु जनप्रतिनिधिगण शासकीय अधिकारीयों के साथ पहुँचते हैं। वे अवलोकन के दौरान अपना सुझाव देते हैं कि भूकंप के दौरान सुरक्षा की दृष्टि से इमारत को अधिक मजबूती प्रदान करने हेतु समुचित प्रावधान कर दें ताकि किसी प्रकार की कोई समस्या भविष्य में निर्मित ना हो। यह सुनकर श्रीवास्तव जी ने अपनी सहमति व्यक्त करते हुये उचित निर्देश देकर उन सभी निरीक्षणकर्ताओं को प्रसन्न कर दिया। उन सभी के जाने के उपरांत श्रीवास्तव जी ने अपने निर्देश वापस लेकर पूर्व निर्धारित योजना अनुसार ही कार्य करने लगे।

श्रीवास्तव जी को विश्वास था कि भूकंप आने पर भी इमारत को कोई नुकसान नही पहुँचेगा उनसे जब कुछ लोगों ने पूछा कि आपने यह बात उन निरीक्षणकर्ताओं को क्यों नही बता दी ? वे विनम्रतापूर्वक बोले कि लोग अपने को ज्ञानवान बताने के लिये किसी भी विषय पर किसी भी समय मुफ्त में अपने विचार व्यक्त करते हुये सुझाव दे देते हैं मेरा सिद्धांत है कि जिसे ज्ञान ना हो और वह उस विषय पर सुझाव दे रहा हो तो उससे बहस करना व्यर्थ में अपना समय गँवाना है। उन निरीक्षणकर्ताओं में कोई भी आर्किटेक्ट नही था और उनको समझाने का प्रयास करना व्यर्थ था। यदि मैं उनके सुझाव के अनुसार कार्य करता तो लाखों रूपये का खर्च बढकर शासकीय धन का व्यर्थ ही अपव्यय होता इसलिये ऐसे अवसर पर उनकी हाँ में हाँ मिलाकर मैंने अपना पल्ला झाड़ लिया।

उस सहकारी बैंक का निर्माण पूर्ण होने के उपरांत अचानक ही एक दिन भूकंप आ जाता है, शासकीय अधिकारीगण एवं जनप्रतिनिधिगण जिन्होंने इमारत का निरीक्षण किया था और अपने सुझावों से आर्किटेक्ट को अवगत कराया था वे अपनी दूरदर्शिता के लिये मन ही मन प्रसन्न हो रहे थे कि उन्होने इमारत को मजबूती प्रदान कर विपरीत परिस्थितियों में ध्वस्त होने से बचा लिया। इंजी सुरेन्द्र श्रीवास्तव भी तुरंत वहाँ पहुँचे और यह जानकर कि भूकंप के कारण इमारत को कोई नुकसान नही हुआ है, उनका आत्मविश्वास और भी अधिक बढ़ गया। उसी समय उन निरीक्षणकर्ताओं को वास्तविकता का पता होता है कि उनके सुझावों पर अमल ना करते हुये श्रीवास्तव जी ने अपनी पूर्वयोजना अनुसार ही कार्य किया है तो वे झेंपते हुये आर्किटेक्ट के अनुभव और निर्माण की रूपरेखा की प्रशंसा करते हुये चले जाते हैं।

10. प्रतिभा

लायंस इंडिया क्लब जो कि वर्तमान में अलायंस क्लब इंटरनेशनल के नाम से जाना जाता है, के वार्षिक समारोह में अंजनी और तेजल नामक गायक कलाकारों से मेरी मुलाकात यादगार बन गयी थी। वे नवविवाहित युगल थे और उन्होने अपने गीतों की प्रस्तुति देने हेतु मंच पर जाने के पहले मेरे पास आकर, यह कहकर कि आप हमारे पिता तुल्य है हमें आशीर्वाद दीजिये कि हम आगे बढ़ सकें, मुझे भाव विभोर कर दिया था।

उनके गीतों एवं गजलों की प्रस्तुति की प्रशंसा हम सभी कर रहे थे और हमारे मन में उनके उज्जवल भविष्य की कामना थी। वे दोनो किसी अच्छी नौकरी की तलाश में थे और मुझसे मार्गदर्शन चाहते थे। मैंने उन्हें समझाया कि आप दोनो को अपने जीवन में गायन के क्षेत्र में आगे बढ़कर बहुत नाम कमाना है इसके लिये आपको प्रतिदिन संगीत साधना के लिये काफी समय देना होगा तभी आपकी प्रतिभा उभर कर श्रोताओं को आकर्षित कर सकेगी इसलिये आपको नौकरी की तरफ अपना ध्यान ना देकर संगीत साधना के प्रति ध्यान को केंद्रित करना चाहिये। दोनो ने मेरी बात मान ली और नौकरी के विचार को अपने मानस पटल से हटा दिया।

जीवन मे जब किसी की प्रगति होनी होती है तो अवसर भी किसी ना किसी रूप में प्राप्त हो जाते है। उस समय के म.प्र. के एक मंत्री अजय सिंह जी के सौजन्य से विधान सभा के सदस्यों के बीच गायन के कार्यक्रम हेतु इन दोनो युवा कलाकारों को अवसर प्राप्त हो गया। इन्होने अपनी पूरी लगन, मेहनत एवं परिश्रम से अपनी प्रस्तुति दी जिसे सुनकर सारा सभागृह वाह वाह एवं तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज उठा और इस कार्यक्रम के संयोजक अजय सिंह जी ने भी प्रसन्न होकर मुझे धन्यवाद दिया। इस कार्यक्रम के बाद दोनो कलाकारों को काफी मान सम्मान प्राप्त हुआ एवं धीरे धीरे उन्हें विभिन्न अवसरों पर बुलाया जाने लगा।

एक दिन मैंने उन्हें सुझाव दिया कि यदि आप लोग विदेश में अपनी प्रस्तुति दे तो स्वाभाविक रूप से आपकी प्रसिद्धि और भी अधिक बढ़ जायेगी। उन्हें मेरा सुझाव पसंद आया और उन्होने प्रयास करके लंदन में अपना कार्यक्रम आयोजित कर लिया। हम सभी ने जैसा सोचा था वैसा ही हुआ और इसके बाद स्वदेश वापस आने पर उन्हें बडे़ बडे़ मंचों पर अपनी प्रस्तुति देने हेतु आमंत्रित किया जाने लगा। इससे प्रोत्साहित होकर उन्होने अपना स्वयं का एक हारमनी नाम का म्यूजिकल ग्रुप बना लिया जिसके माध्यम से वे अपना कार्यक्रम देने लगे। इस प्रकार धीरे धीरे वे प्रगति के सोपान पर आगे बढते गये और उन्होनें स्वयं का अत्याधुनिक रिकार्डिंग स्टूडियो भी स्थापित कर लिया। इससे यह प्रेरणा मिलती है कि यदि हमारा लक्ष्य सही हो और उसे प्राप्त करने के लिये मन में लगन और समर्पण हो तो अपनी मंजिल प्राप्त की जा सकती है।

11. आंतरिक ऊर्जा जगाइए

राजेश पाठक प्रवीण मंच के कुशल संचालक एवं साहित्यकार है। उनकी अपनी विशिष्ट प्रतिभा है। ये जब मंच संचालन करते हैं तो श्रोता मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। राजेश पाठक बी.काम स्नातक हैं एवं इन्होंने पत्रकारिता में डिप्लोमा किया है। ये वर्तमान में म.प्र.विद्युत मंडल में कार्यरत हैं। इनके पिताजी स्वर्गीय भवानी प्रसाद पाठक जो कि पोस्ट आफिस में पोस्ट मास्टर थे, चाहते थे कि राजेश पाठक भी उनके बड़े बेटे डा. गिरीश पाठक के समान डा. बने या इंजीनियरिंग की पढ़ाई करके इंजीनियर बने किंतु ऐसा नही हो पाया। इनके पिताजी हमेशा कहा करते थे कि राजेश तुम जिस क्षेत्र में सेवारत हो वहाँ निष्ठा और ईमानदारी से काम करते हुए अपने अंदर की प्रतिभा को इतना जाग्रत करो कि तुम्हारा नाम रोशन हो सके।

राजेश जी को बचपन से ही सृजन का शौक था उन्होने लेखन के साथ साथ मंच संचालन की कला को अपनाया। शुरूआत में उन्हें कुछ कठिनाईयां आई परंतु कुछ समय के बाद वे इसमें दक्ष हो गये। इन्होंने अनेको कार्यक्रम में सफलता पूर्वक मंच संचालन किया तथा पाथेय प्रकाशन के माध्यम से साहित्यिक कृतियों का संपादन किया। पाठक जी कहते हैं कि उनके माता पिता का दिशा दर्शन हमेशा उनके जीवन में प्रेरणा स्त्रोत रहा है। यह उन्हीं का आशीर्वाद है कि आज संचालन के क्षेत्र में गौरव से उनका नाम लिया जाता हैं।

राजेश पाठक जी हमारी युवा पीढी के लिये उदाहरण है। यह जरूरी नही कि सभी विद्यार्थी डाक्टर या इंजीनियर बनकर ही जीवन पथ में आगे बढ़े। हमें यह समझना चाहिए कि हमारे अंदर क्षमताएँ क्या हैं। हम इन्हें सही दिशा में विकसित करें तो उस क्षेत्र में सफल होगें। वे कहते हैं कि उन्होंने अपनी आंतरिक क्षमता और उर्जा का सदुपयोग किया। एक समय था जब वे 18 घंटे तक मेहनत करके अपने व्यक्तित्व को निखारने के लिए व्यस्त रहते थे। उनका कहना हैं कि कोई भी व्यक्ति अपनी मेहनत, लगन, निष्ठा, समर्पणशीलता से ही जीवन में प्रगति कर सकता है। हमें जीवन को जीवटता के साथ जीते हुए सकारात्मक सृजन की दिशा में बढ़ना चाहिए।

12. आत्मबल

मानकुंवर बाई महाविद्यालय की प्राचार्या सुश्री आशा दुबे ने अपने कथन को लघु कहानियों का स्वरूप देकर इसे प्रस्तुत किया। मेरा पैतृक गांव बघराजी है मेरे पूर्वज वहाँ के मालगुजार थे। हम लोग कभी कभी गांव जाया करते थे। एक दिन बिहारी नामक किसान अपनी बैलगाड़ी पर सामान लादकर गांव लौट रहा था, तभी उसकी बैलगाड़ी दलदल में फँस गई। उसके सभी प्रयासों के बावजूद भी बैलगाड़ी बाहर नही निकल सकी। गांव के लोग वहाँ से निकलते और बिहारी की हालत देख, व्यंग्य से मुस्कुराते हुए आगे बढ़ जाते थे। उसके उद्दंड और दुष्ट स्वभाव के कारण किसी ने भी उसकी सहायता नही की । जब यह जानकारी गांव के ही दूसरे किसान महीपाल को मिली तब अपने शत्रु के प्रति भी उसका सद्भाव जाग्रत हो उठा और उसने घटना स्थल पर जाकर अपने हृष्ट पुष्ट बलवान बैलों की सहायता से बिहारी की गाड़ी को दलदल से बाहर निकाल लिया। बिहारी महीपाल के स्वभाव को देखकर पानी पानी हो गया। अब वह शत्रुता छोडकर उसका मित्र बन गया। सद्भाव, शत्रुता का अंत और मित्रता का सूत्रपात करता है।

डा. आशा दुबे ने मुझे बताया कि उनकी कक्षा में एक ऐसी छात्रा थी जो मासिक परीक्षाओं में बड़ी मुश्किल से उत्तीर्ण हो पाती थी। वार्षिक परीक्षा में जब उसे सर्वप्रथम स्थान मिला तो सब लोगों को बहुत आश्चर्य हुआ कि इतनी अयोग्य छात्रा सर्वप्रथम कैसे आ गई ? इसने जरूर नकल की होगी और इस प्रकरण की छानबीन के लिए कालेज में एक जाँच समिति बैठा दी। उस समिति द्वारा जब उस छात्रा की मौखिक परीक्षा ली गयी तब यह देखकर सब लोग बहुत आश्चर्यचकित हुए कि उसने बहुत अच्छे अंक प्राप्त किये। कालेज में अब तो सर्वत्र उसी की चर्चा हो रही थी। एक सहेली के पूछने पर अपनी गौरवपूर्ण सफलता का रहस्य बताते हुए उस छात्रा ने कहा कि मैंने दृढ़ संकल्प कर लिया था कि मैं वार्षिक परीक्षा में अवश्य प्रथम स्थान प्राप्त करूँगी। मैंने मन लगाकर एकाग्रचित्त होकर मेहनत की, कठिनाईयों से निराश नही हुई और अपने अध्ययन में जुटी रही। मेरी सफलता मेरे दृढ़ संकल्प का ही परिणाम है। सच है दृढ़ संकल्पित व्यक्ति के लिए जीवन में कुछ भी असंभव नही है।

मेरी एक अभिन्न मित्र बहुत बीमार थी चिकित्सीय परामर्श पर उसके स्वास्थ्य लाभ हेतु एक अलग कमरे में रखा गया था। वह अपनी खिड़की के बाहर एक वृक्ष की डाली को प्रतिदिन ध्यानपूर्वक देखा करती थी। धीरे धीरे उस डाली में पत्तिया झड़कर केवल एक पत्ती शेष रह गई। मेरी बीमार सहेली को ऐसा लगा कि उस पत्ती के झडते ही उसका जीवन भी समाप्त हो जाएगा। यह बात उसने मुझे बताई, मैंने एक अच्छे चित्रकला में पारंगत चित्रकार को जब अपने मित्र की इस वेदना से अवगत कराया तब उसने अपनी हार्दिक सद्भावना से प्रेरित होकर रातों रात उस शुष्क डाली को अपनी चित्रकला के कौशल से हरा भरा बना दिया। मेरी उस बीमार मित्र ने उस डाल को जब सुबह हरा भरा देखा तो उसका आत्मविश्वास और मनोबल अचानक जाग उठा। उसकी उदासी समाप्त हो गई और वह स्वस्थ्य होने लगी। इसका निष्कर्ष यह है कि हम अपने मनोबल और आत्मविश्वास के सहारे उल्लासपूर्ण एवं सफल जीवन जी सकते हैं।

13. सद्विचारों की नींव

श्री अखिलेश कुमार शुक्ल एक इन्जीनियर हैं। उनके प्रपिता पं. रविशंकर शुक्ल मध्य प्रान्त जिसे तब सी. पी. एण्ड बरार कहा जाता था, के मुख्य मंत्री थे। उनके पिता श्री ईश्वरीचरण शुक्ल एक प्रसिद्ध ई. एन. टी. सर्जन थे। श्री अखिलेश शुक्ल 1970 में इन्जीनियरिंग की डिग्री लेने के बाद एच. ई. एल. भोपाल में काम करने लगे।

श्री शुक्ल ने 1976 में विख्यात अंतर्राष्ट्रीय कम्पनी में कुवैत में काम करना प्रारम्भ किया। कुवैत में उनका काम अच्छा जम गया। उनका परिवार भी उनके साथ था। उस समय भारत अपनी उन्नति के शिखर से दूर था। उनकी पत्नी और बच्चे सब वहाँ के माहौल में ढल चुके थे। कुवैत विश्व के सबसे अमीर देशो में से एक था। सभी तरह की वैश्विक सुख-सुविधाएं उन्हें उपलब्ध थीं। अब कुवैत ही उनका घर बन चुका था। उनकी आय भी बहुत अच्छी थी। उनके और उनके परिवार के सभी सदस्य कुछ वर्षों तक और वहाँ रहना चाहते थे। श्री शुक्ल जीवन के चालीस वसन्त पार कर चुके थे।

अचानक 1988 में उनके जीवन में एक दोराहा आया। उनके पिता का स्वास्थ्य खराब रहने लगा था। उन्हें देखभाल की आवश्यकता थी। उनके चाचा लोगों ने उन्हें सलाह दी कि उन्हें अब अपने देश वापिस आकर अपने पिता की देखभाल करना चाहिए और यहीं पर काम करना चाहिए। यह समय उनके लिये किसी अग्निपरीक्षा से कम नहीं था। एक ओर परिवार के सदस्य थे जो एक वैभवशाली जीवन जी रहे थे जबकि दूसरी ओर भारत में उनके परिवार की जीवनशैली सादा जीवन उच्च विचारों वाली थी। प्रश्न था कि क्या वे इस परिवर्तित जीवनशैली को स्वीकार कर पाएंगे? एक समस्या और भी थी कि अनेक वर्षों तक कठिन परिश्रम करके जो काम और नाम कुवैत में कमाया है उसे छोड़कर भारत में फिर नये सिरे से काम जम सकेगा और क्या उसमें वैसी ही सफलता मिल सकेगी? इसके साथ ही यह भी कि जब पिता को उनकी आवश्यकता है तब क्या वे उनकी अनदेखी कर दें?

अन्त में विजय पारिवारिक संस्कारों की हुई और श्री शुक्ल ने भारत आकर अपने पिता का संबल बनने का निर्णय लिया। वे भारत आ गये। उनके आने से उनके पिता को जो प्रसन्नता हुई थी उसे उन्होंने अनुभव तो किया है किन्तु उसका वर्णन करने में वे अपने आप को असमर्थ पाते हैं। यहाँ आकर उन्होंने नये सिरे से अपना काम प्रारम्भ किया। कड़ी मेहनत की। ईश्वर की कृपा और बुजुर्गों के आशीर्वाद से उन्हें यहाँ भी सफलता मिली। उनका काम भी सुचारू रुप से चलने लगा और समाज में भी उन्हें एक प्रतिष्ठित स्थान मिला।

उनका कहना है कि यदि जीवन में सद्विचारों की नींव पर निर्णय लिये जाएं तो सफलता और खुशहाली निश्चित ही प्राप्त होती है।

14. निर्जीव सजीव

जबलपुर के पास नर्मदा किनारे बसे रामपुर नामक गाँव में एक संपन्न किसान एवं मालगुजार ठाकुर हरिसिंह रहते थे। उन्हें बचपन से ही पेड़-पौधों एवं प्रकृति से बड़ा प्रेम था। वे जब दो वर्ष के थे, तभी उन्होने एक वृक्ष को अपने घर के सामने लगाया था। इतनी कम उम्र से ही वे उस पौधे को प्यार व स्नेह करते रहे। जब वे बचपन से युवावस्था में आए तब तक पेड़ भी बड़ा होकर फल देने लगा था। गाँवों में शासन द्वारा तेजी से विकास कार्य कराए जा रहे थे, और इसी के अंतर्गत वहाँ पर सड़क निर्माण का कार्य संपन्न हो रहा था। इस सड़क निर्माण में वह वृक्ष बाधा बन रहा था, यदि उसे बचाते तो ठाकुर हरिसिंह के मकान का एक हिस्सा तोड़ना पड सकता था। परंतु उन्होने वृक्ष को बचाने के लिए सहर्ष ही अपने घर का एक हिस्सा टूट जाने दिया। सभी गाँव वाले इस घटना से आश्चर्यचकित थे एवं उनके पर्यावरण के प्रति प्रेम की चर्चा करते रहते थे।

पेड़ भी निर्जीव नही सजीव होते है, ऐसी उनकी धारणा थी। इस घटना से मानो वह पेड़ बहुत उपकृत महसूस कर रहा था। जब भी ठाकुर साहब प्रसन्न होते तो वह भी खिला-खिला सा महसूस होता था। जब वे किसी चिंता में रहते तो वह भी मुरझाया सा हो जाता था।

एक दिन वे दोपहर के समय पेड़ की छाया में बैठे वहाँ के मनोरम वातावरण एवं ठंडी-ठंडी हवा में झपकी लग गयी और वे तने के सहारे निद्रा में लीन हो गये। उनसे कुछ ही दूरी पर अचानक से एक सांप कही से आ गया। उसे देखकर वह वृक्ष आने वाले संकट से विचलित हो गया और तभी पेड़ के कुछ फल तेज हवा के कारण डाल से टूटकर ठाकुर साहब के सिर पर गिरे जिससे उनकी नींद टूट गयी। उनकी नींद टूटने से अचानक उनकी नजर उस सांप पर पडी तो वे सचेत हो गये। गाँव वालों का सोचना था, कि वृक्ष ने उनकी जीवन रक्षा करके उस दिन का भार उतार दिया जब उसकी सड़क निर्माण में कटाई होने वाली थी।

समय तेजी से बीतता जाता है और जवानी एक दिन बुढ़ापे में तब्दील हो जाती है इसी क्रम में ठाकुर हरिसिंह भी अब बूढ़े हो गये थे और वह वृक्ष भी सूख कर कमजोर हो गया था। एक दिन अचानक ही रात्रि में ठाकुर हरिसिंह की मृत्यु हो गयी। वे अपने शयनकक्ष से भी वृक्ष को कातर निगाहों से देखा करते थे। यह एक संयोग था या कोई भावनात्मक लगाव का परिणाम कि वह वृक्ष भी प्रातः काल तक जड़ से उखड़कर अपने आप भूमि पर गिर गया।

गाँव वालों ने दोनो का एक दूसरे के प्रति प्रेम व समर्पण को देखते हुए निर्णय लिया कि उस वृक्ष की लकड़ी को काटकर अंतिम संस्कार में उसका उपयोग करना ज्यादा उचित रहेगा और ऐसा ही किया गया। ठाकुर साहब का अंतिम संस्कार विधि पूर्वक गमगीन माहौल में संपन्न हुआ इसमें पूरा गाँव एवं आसपास की बस्ती के लोग शामिल थे और वे इस घटना की चर्चा आपस में कर रहे थे। ठाकुर साहब का मृत शरीर उन लकड़ियों से अग्निदाह के उपरांत पंच तत्वों में विलीन हो गया और इसके साथ-साथ वह वृक्ष भी राख में तब्दील होकर समाप्त हो गया। दोनो की राख को एक साथ नर्मदा जी में प्रवाहित कर दिया गया। ठाकुर साहब का उस वृक्ष के प्रति लगाव और उस वृक्ष का भी उनके प्रति प्रेमभाव, आज भी प्रेरणास्पद हैं। यदि हमें प्रकृति को बचाना है तो वृक्षों से प्रेम करना होगा।

15. सफलता का नींव

एक शाला में कक्षा बारहवीं के छात्रों को अध्यापक महोदय जीवन में लक्ष्य, उद्देश्य एवं संगठित होकर कार्यरत रहने से प्राप्त सफलता के विषय पर व्याख्यान दे रहे थे। उन्होनें चींटी का उदाहरण देकर बताया कि एक तिलचट्टा मरा हुआ पड़ा था वहाँ पर कुछ ही समय बाद हजारों की संख्या में चींटियाँ आ गई और एक लंबी कतार बनाकर उसके मृत शरीर को धीरे धीरे खिसकाकर किसी सुरक्षित स्थान पर ले जाने का प्रयास कर रही थी जहाँ पर वे लंबे समय तक उसे आहार के रूप में ग्रहण कर सकें।

यदि हम इस घटना का चिंतन करें तो हम उनका लक्ष्य व उद्देश्य समझ सकते हैं वे अपने लक्ष्य के प्रति पूर्ण लगन के साथ इतनी समर्पित थी कि उन्हें उनके रास्ते से विमुख नही किया जा सकता था यदि आप कोई अवरोध भी करने का प्रयास करेंगे तो वे उसके आस पास से आगे बढने का अपना रास्ता निकाल लेती है। वे हर चुनौती का सामना संगठित होकर करने के लिये तैयार रहती है। वे अपनी जान दे देंगी परंतु अपने कर्तव्य से विमुख नही होगी। मैं आपको एक दूसरा उदाहरण हंसों का दे रहा हूँ आप कभी भी किसी भी हंस को अकेला उड़ते हुये नही देखेंगे। ये जब भी एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते हैं तो अपने समूह में ही रहकर एक साथ अपना स्थान बदलते हैं। ये जब उडान भरते हैं तो इनका आकार इस प्रकार का रहता है कि हवा की गति का दबाव सबसे सामने रहने वाले हंसों पर पडता है और वह हंस कुछ समय तक इसका सामना करता है और थक जाने पर पीछे होकर दूसरे हंसों को आगे कर देता है, इस प्रकार यह क्रिया सतत चलती रहती है जब तक कि वे गंतव्य तक ना पहुँच जाए।

इन दो उदाहरणों से हमें समझना चाहिये कि जीवन में उद्देश्य पूर्ण लक्ष्य का निर्धारण करके संगठित होकर पूर्ण लगन, परिश्रम एवं समर्पण रखकर क्रियाशील रहना चाहिये। जीवन में यही सफलता का आधार है।

16. चयन

रमेश आज डाक्टर की उपाधि पाकर बहुत खुश था। उसके मन में यह विचार आ रहा था कि अब वह गांवों में जाकर गरीब जरूरतमंद लोगों की सेवा करके अपने जीवन के ध्येय व उद्देश्य को पूरा करने की दिशा में कार्यरत हो सकेगा। वह अपने पुराने दिनों की ओर स्मरण कर सोच रहा था कि वह जब दसवीं कक्षा में उत्तीर्ण हो गया था और उसे भविष्य में विज्ञान या कामर्स विषय में से किसी एक विषय का चयन करना था, उसके परिवारजनो का कहना था कि व्यापारिक पृष्ठभूमि होने के कारण कामर्स लेना उसके लिए हितकारी रहेगा परंतु वह स्वयं विज्ञान विषय में आगे पढ़ने हेतु लालायित था।

छात्रों को भविष्य में विषयों के चयन में क्या चुनना चाहिये इस संदर्भ में प्रधानाध्यपक महोदय ने अपने अधीनस्थ अध्यापकों की मदद से सभी छात्रों एवं उनके अभिभावकों को आमंत्रित करके उनके विचारों को जानने का प्रयास किया। इसमें सामंजस्य स्थापित करने के लिये अध्यापकों ने अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभायी उन्होंने सभी को समझाया कि शिक्षा जीवन का सबसे महत्वपूर्ण अंग है और आपके भविष्य का निर्धारण इसी पर निर्भर है। यदि आपने विषय के चयन में गलती कर दी तो आप अरूचि के कारण उस से दूर होते जाऐंगे एवं अपेक्षित सफलता से वंचित रहेंगे। अभिभावकों को अपने बच्चों की रूचि में विशेष ध्यान देना चाहिये और उन्हें अपने विचारों को बच्चों पर नही थोपना चाहिये। इस प्रयास का परिणाम यह हुआ कि अभिभावक भी सजग हो गये और उन्होने स्नेह पूर्वक अपने बच्चों से उनकी रूचि जानने का प्रयत्न करने लगे। रमेश के माता पिता भी उसकी विज्ञान विषय में गहरी रूचि देखकर उन्होने अपना निर्णय बदल दिया और विज्ञान विषय के लिये सहमति प्रदान कर दी। उसी का यह सुफल है कि वह चिकित्सक बन सका। यह घटना अभिभावकों को प्रेरणा देती है कि उन्हें अपने बच्चों की अभिरूचि के अनुसार ही आगे बढ़ने के लिए प्रोत्साहन देना चाहिए।

17. हृदय परिवर्तन

रमेश एक व्यापारी था जो अपनी पत्नी और पाँच वर्षीय बच्ची के साथ रहता था। एक दिन रात के तीसरे पहर में एक चोर उनके घर में घुस आया। वह बच्ची जाग रही थी और उसके माता पिता गहरी नींद में सो रहे थे। बच्ची उस चोर को देखकर उससे बोली तुम्हें जो चाहिये हो ले जाओ, मैं चाबी दे देती हूँ परंतु मेरे माँ पिताजी को कुछ मत करना। उनको नींद से मत उठाना, इतना कहकर उसने अपनी माँ के तकिये के नीचे से चाबी निकालकर चोर के हवाले कर दी। चोर ने रूपये, जेवरात इत्यादि इकट्ठे कर लिये तभी वह बच्ची बोली कि मेरे पास टाफी और चाकलेट भी हैं यह भी ले जाओ अपने बच्चों को दे देना। यह सुनकर वह चोर ठिठका और अपने अतीत में खो गया। उसे उस दिन की याद आने लगी जब इसी उम्र की उसकी बच्ची बीमार थी और वह गरीबी के कारण उसका उचित इलाज नही करा पाया था और उसकी मृत्यु हो गयी थी। उसकी अकाल मृत्यु के कारण वह आक्रोश में चोरी का धंधा अपनाकर अमीर बनने की ख्वाहिश रखने लगा। उस बच्ची के शब्दों ने उसे भीतर तक हिला दिया और वह सब सामान वही पर छोडकर बच्ची के सिर पर हाथ फेरकर चुपचाप घर से वापस चला गया।

इस घटना कुछ दिनों पश्चात् वह बच्ची अपने माता पिता के साथ नदी में नौका विहार का आनंद ले रही थी। अचानक ना जाने कैसे नौका असंतुलन के कारण पलट गयी और वह बच्ची पानी में डूबने लगती है। वह चोर व्यक्ति संयोग से उस दिन नदी किनारे स्नान कर रहा था। यह दृश्य देखकर वह तेजी से तैरता हुआ उस बच्ची के पास तक पहुँच जाता है और उसे अथक प्रयासों द्वारा डूबने से बचाकर किनारे तक ले आता हैं। इस दौरान उस चोर के पेट में पानी भर जाने के कारण उसे सांस लेने में तकलीफ होने लगती हैं। वह बच्ची की ओर देखते हुये मुस्कुराकर अपनी पुरानी यादों में खो जाता है उसी समय वह बच्ची भी उसके माथे को सहलाती है। वह बच्ची से कहता है कि बेबी तुम्हारे उस दिन के कथन एवं व्यवहार ने मेरा हृदय परिवर्तित कर दिया था। मैंने चोरी छोड़कर परिश्रम करके जीवन यापन प्रारंभ किया है। आज मैं खुष हूँ कि जो भी कमा रहा हूँ ईमानदारी से अपने श्रम से प्राप्त कर रहा हूँ। मुझे अब किसी प्रकार का भय नही होता, क्योंकि मैं ईमानदारी के पथ पर चल रहा हूँ।

18. समाधान

रागिनी एक संभ्रांत परिवार की पढी लिखी, सुंदर एवं सुषील लडकी थी। उसका विवाह एक कुलीन परिवार के लडके राजीव के साथ संपन्न हुआ था। उसके माता पिता आश्वस्त थे कि उनकी बेटी उस परिवार में सुखी रहेगी परंतु उसके विवाह के कुछ माह बाद ही उसे दहेज के लिये प्रताड़ित किया जाने लगा और उसकी यह पीडा प्रतिदिन उस पर हो रहे अन्याय एवं अत्याचार से बढती जा रही थी। उसका पति भी प्रतिदिन नशे का सेवन कर उसके साथ दुर्व्यवहार करने लगा था जिससे वह बहुत दुखी थी। एक दिन तो हद ही हो गई जब उसके पति ने उस पर हाथ उठा दिया। उसके पडोसी भी उसके प्रति सहानुभूति रखते हुये उसे सलाह देते थे कि वह यह बात अपने माता पिता को बताये एवं पुलिस की मदद भी प्राप्त करे परंतु रागिनी समझती थी कि इससे कुछ समय के लिये राहत तो मिल सकती है परंतु यह स्थायी समाधान नही है।

जब उस पर अत्याचार की पराकाष्ठा होने लगी तो उसने गंभीरतापूर्वक चिंतन मनन करके एक कठोर निर्णय ले लिया जो कि सामान्यतया भारतीय नारी के लिये चुनौतीपूर्ण था उसका पति प्रतिदिन की आदत के अनुसार शाम को नशा करके घर आया और रागिनी को ऊँची आवाज में डाँटता हुआ उस पर हाथ उठाने लगा तभी रागिनी ने उसका हाथ अपने हाथ से जोरो से पकड लिया और जब उसने दूसरा हाथ उठाने का प्रयास किया तो रागिनी ने अपनी पूरी शक्ति और ताकत से उसके इस प्रहार को रोककर उसे जमीन पर पटक दिया। वह साक्षात रणचंडी का अवतार बन गयी थी। वह समाज को यह बताना चाहती थी कि नारी अबला नही सबला है और वह अत्याचार का प्रतिरोध भी कर सकती है। अब उसने पास ही में पडे एक डंडे से राजीव पर प्रहार कर दिया। राजीव डंडे की चोट से एवं अपनी पत्नी के इस रौद्र रूप को देखकर दूसरे कमरे की ओर भाग गया। यह एक सत्य है कि नशा करने वाले व्यक्ति का शरीर अंदर से खोखला हो जाता है वह ऊँची आवाज में बात तो कर सकता है परंतु उसमें लडने की षक्ति खत्म हो जाती है। राजीव की बहन उसे बचाने हेतु बीच में आयी परंतु वह भी डंडे खाकर वापस भाग गयी।

यह घटना देखकर मुहल्ले वाले राजीव के घर के सामने इकट्ठे होने लगे और महिलाओं का तो मानो पूरा समर्थन रागिनी के साथ था, रागिनी एक स्वाभिमानी महिला थी जिसने अपने माता पिता के पास ना जाकर एक मकान उसी मोहल्ले में किराए पर ले लिया। वह स्वावलंबी बनना चाहती थी, वह पाककला में बहुत निपुण थी उसने इसका उपयोग करते हुये अपनी स्वयं की टिफिन सेवा प्रारंभ कर दी। शुरू शुरू में तो उसे काफी संघर्ष एवं चुनौतियों का सामना करना पडा परंतु धीरे धीरे सफलता मिलती गयी।

आज वह एक बडी दुकान की मालिक है जिसमें सौ से भी अधिक महिलाएँ कार्य कर रही हैं। उसकी प्रगति देखकर राजीव और उसका परिवार मन ही मन शर्मिंदा होने लगा और अपनी हरकतों के कारण पूरे मुहल्ले में सिर उठाने के लायक भी नही रहा। हमें जीवन में संकट से कभी घबराना नही चाहिये। जीवन में कभी भी चिंता करने से समस्याएँ नही सुलझती है समाधान पर ध्यान केंद्रित कर इस दिशा में कर्म करना चाहिये।

19. जब जागो तब सवेरा

शहर में हरिप्रसाद एक प्रतिष्ठित व्यवसायी थे। उनके एक मित्र ने उन्हें उकसा कर शेयर मार्केट के मुनाफे के विषय में समझा दिया। अब वे प्रतिदिन शेयर की सट्टेबाजी में रम गये और लाखों के नफ़ा नुकसान में उन्हें मजा आने लगा। वे जब तक यह समझ पाते कि शेयर मार्केट में प्रतिदिन खरीद एवं बिक्री में कोई मुनाफा नही कमा सकता तब तक बहुत देरी हो चुकी थी और वे बहुत बडी पूंजी गंवा चुके थे। वे यह बात भूल गये कि वे स्वयं सबको शिक्षा देते थे कि व्यक्ति को जुआ कभी नही खेलना चाहिये जिसका अंत सिर्फ बरबादी ही होता है और उनके साथ भी यही हुआ।

कुछ ही माह में उनके इस शौक ने उन्हें करोडो़ रूपये का घाटा पहुँचा दिया उन्हे जब होष आया तब तक वे काफी नुकसान उठा चुके थे एवं दिवालिया होने की कगार पर आ गये थे। उन्होने तुरंत ही इस काम से तौबा कर ली और शहर के एक रेस्टारेंट को जोकि घाटे में चल रहा था उसे बहुत कम किराए पर लेकर वे इस व्यवसाय में कूद पड़े। उन्होंने अपनी मेहनत, लगन व चतुराई से इसे शहर का सर्वश्रेष्ठ रेस्टारेंट बना दिया। वहाँ पर शहर के गणमान्य लोग, शासकीय अधिकारी एवं जनप्रतिनिधि इत्यादि आने लगे। हरिप्रसाद इन लोगों से धीरे धीरे मित्रता करके व्यापारियों एवं उद्योगपतियों के काम अधिकारियों से करवाकर अपना कमीशन लेने लगा। इससे उसे बहुत आर्थिक लाभ हुआ और वह पहले से भी ज्यादा संपन्न व्यक्ति बन गया।

हरिप्रसाद ने एक बार गीता जी पर साप्ताहिक प्रवचन बहुत उत्साह,प्रेम एवं श्रद्धा से अपने घर पर आयोजित किया जिसमें कर्म, धर्म एवं व्यापार से संबंधित विषय पर मार्गदर्शन दिया गया था इसे सुनकर उसे अपने द्वारा अवैधानिक कार्यो से होने वाली आय को उचित आय ना मानकर उन्होने पूर्णतः बंद कर दिया। उन्हें अपने द्वारा किये गये इन गलत कार्यों पर ग्लानि होने लगी। उन्होने व्यापार संबंधी परामर्श देने हेतु व्यापारिक परामर्श केंद्र की स्थापना की जिसका उद्देश्य व्यापार से संबंधित कठिनाईयों के निराकरण हेतु परामर्श देना था उनका मत था कि यदि सही समय पर सही सलाह मिल जाए तो कठिनाईयों का हल आसान हो जाता है। इस परामर्श केंद्र में ईमानदारी और नैतिकता के साथ व्यापार करने की विधि समझायी जाती थी। हरिप्रसाद को इस कार्य के माध्यम से बहुत आंतरिक संतुष्टि एवं शांति मिलने लगी।

20. कर्मफल

जबलपुर शहर से लगी हुई पहाडियों पर एक पुजारी जी रहते थे। एक दिन उन्हें विचार आया कि पहाडी से गिरे हुये पत्थरों को धार्मिक स्थल का रूप दे दिया जाए। इसे कार्यरूप में परिणित करने के लिये उन्होने एक पत्थर को तराश कर मूर्ति का रूप दे दिया और आसपास के गांवों में मूर्ति के स्वयं प्रकट होने का प्रचार प्रसार करवा दिया।

इससे ग्रामीण श्रद्धालुजन वहाँ पर दर्शन करने आने लगे। इस प्रकार बातों बातों में ही इसकी चर्चा शहर भर में होने लगी कि एक धार्मिक स्थान का उद्गम हुआ हैं। इस प्रकार मंदिर में दर्शन के लिये लोगों की भारी भीड़ आने लगी। वे वहाँ पर मन्नतें माँगने लगे। अब श्रद्धालुजनो द्वारा चढ़ाई गई धनराशि से पुजारी जी की तिजोरी भरने लगी और उनके कठिनाईयों के दिन समाप्त हो गये। मंदिर में लगने वाली भीड़ से आकर्षित होकर नेतागण भी वहाँ पहुँचने लगे और क्षेत्र के विकास का सपना दिखाकर अपनी लोकप्रियता बढ़ाने का प्रयास करने लगे।

कुछ वर्षों बाद पुजारी जी अचानक बीमार पड़ गये। जाँच के उपरांत पता चला कि वे कैंसर जैसे घातक रोग की अंतिम अवस्था में है यह जानकर वे फूट फूट कर रोने और भगवान को उलाहना देने लगे कि हे प्रभु मुझे इतना कठोर दंड क्यों दिया जा रहा है ? मैंने तो जीवनभर आपकी सेवा की है।

उनका जीवन बड़ी पीड़ादायक स्थिति में बीत रहा था। एक रात अचानक ही उन्होनें स्वप्न में देखा की प्रभु उनसे कह रहे हैं कि तुम मुझे किस बात की उलाहना दे रहे हो ? याद करो एक बालक भूखा प्यासा मंदिर की शरण में आया था अपने उदरपूर्ति के लिये विनम्रतापूर्वक दो रोटी माँग रहा था परंतु तुमने उसकी एक ना सुनी और उसे दुत्कार कर भगा दिया। एक दिन एक वृद्ध बरसते हुये पानी में मंदिर में आश्रय पाने के लिये आया था। उसे मंदिर बंद होने का कारण बताते हुये तुमने बाहर कर दिया था। गांव के कुछ विद्यार्थीगण अपनी शाला के निर्माण के लिये दान हेतु निवेदन करने आये थे। उन्हें शासकीय योजनाओं का लाभ लेने का सुझाव देकर तुमने विदा कर दिया था। मंदिर में प्रतिदिन जो दान आता है उसे जनहित में खर्च ना करके, यह जानते हुये भी कि यह जनता का धन है तुम अपनी तिजोरी में रख लेते हो। तुमने एक विधवा महिला के अकेलेपन का फायदा उठाकर उसे अपनी इच्छापूर्ति का साधन बनाकर उसका शोषण किया और बदनामी का भय दिखाकर उसे चुप रहने पर मजबूर किया।

तुम्हारे इतने दुष्कर्मों के बाद तुम्हें मुझे उलाहना देने का क्या अधिकार है। तुम्हारे कर्म कभी धर्म प्रधान नही रहे। जीवन में हर व्यक्ति को उसका कर्मफल भोगना ही पड़ता है। इन्ही गलतियों के कारण तुम्हें इसका दंड भोगना ही पडे़गा। पुजारी जी की आँखें अचानक ही खुल गई और स्वप्न में देखे गये दृश्य मानो यथार्थ में उनकी आँखों के सामने घूमने लगे और पश्चाताप के कारण उनके नेत्रों से अविरल अश्रुधारा बहने लगी।

21. दो रास्ते

श्री रवि गुप्ता उद्योगपति होने के साथ साथ महाकौशल चेंबर आफ कामर्स के अध्यक्ष भी हैं। मैंने जब उनसे पूछा कि आपके जीवन का कोई ऐसा वृत्तांत बताए जो कि आपके जीवन में निर्णायक मोड़ के रूप में आया हो व दूसरों के लिये प्रेरणादायी भी हो तो वे बहुत गंभीर हो गये। वे बोले उनके पिताजी जो कि बनारस हिंदू विश्वविद्यालय से स्नातक थे उन्होंने एक इंजीनियरिंग कारखाने की स्थापना की थी उसे सुचारू रूप से चलाने हेतु मुझे इंजीनियरिंग की शिक्षा दिलवायी गयी। इसके बाद उन्होंने 6 दिसंबर 1982 को घटित उस मार्मिक दुर्घटना के विषय में बताया जिसमें उनके पिताजी की मृत्यु एक बारात में हवाई फायर के दौरान गोली लग जाने से अचानक हो गई। वो अपने आदर्श एवं प्रिय पिता कि मात्र स्मृतियों को अपने दिलों में समाए असहाय से ईश्वर के इस कृत्य के साक्षी बनकर रह गये थे।

रवि ने बताया कि अब उनके जीवन में संघर्ष का वह दिन आ गया जब उन्हे यह निर्णय लेना था कि अपने पिता द्वारा निर्मित कारखाने को संभालू या पैतृक व्यवसाय जो कि उनके भाई बंधुओं की सम्मिलित भागीदारी से चल रहा था उसमें जाने का मार्ग चुनू। उनके पिताजी के संस्कारों ने यह प्रेरणा दी कि इन कठिन परिस्थितियों एवं विपरीत समय में उन्हें भाई बंधुओं का साथ देना चाहिए, यह उनका नैतिक दायित्व था और उन्होंने निर्णय ले लिया कि वे अपने पैतृक व्यवसाय को अपनाने के मार्ग पर आगे बढेंगें। इस निर्णय ने उनकी विचारधारा एवं जीवनशैली ही बदल दी।

श्री गुप्ता जी की सोच है कि जीवन सफर में कभी भी ना थकते हुए सकारात्मकता के साथ सर्वजन सुखाए सर्वजन हिताए के सिद्धांत को मानकर अपना कार्य संपादित करना चाहिए ताकि एक स्वस्थ्य समाज की चाहत पूरी हो सके।

22. गुरूदक्षिणा

आचार्य रामदेव के सान्निध्य में अनेंकों छात्र शिक्षा ग्रहण करते थे, उनमें से एक केशव अपनी शिक्षा पूर्ण करने के उपरांत गुरूजी के पास जाकर उन्हें गुरूदक्षिणा हेतु निवेदन करता है। गुरूजी उसकी वाणी से समझ जाते हैं कि इसे मन में अहंकार की अनूभूति हो रही है। वे गुरूदक्षिणा के लिये उसे कहते है कि तुम कोई ऐसी चीज मुझे भेंट कर दो जिसका कोई मूल्य ना हो।

केशव यह सुनकर मन ही मन प्रसन्न होता है कि गुरूजी तो बहुत ही साधारण सी भेंट मांगकर संतुष्ट हो जाऐंगे। वह जमीन से मिट्टी उठाकर सोचता है कि इसका क्या मूल्य है तभी उसे महसूस होता है कि जैसे मिट्टी कह रही है कि वह तो अमूल्य है वह अनाज की पैदावार करके भूख से संतुष्टि देती है उसके गर्भ में अनेको प्रकार के खनिज एवं अमूल्य धातुऐं छिपी है इनका दोहन करके मानव धन संपदा पाता है। ऐसा भाव आते ही केशव मिट्टी को छोड़ देता है और पास में पडें हुऐ कचरे के ढेर में से कुछ कचरा यह सोचकर उठाता है कि यह तो बेकार है इसका क्या मूल्य हो सकता है वह कचरा मानो उससे कहता है कि मुझसे ही तो खाद बनती है जो कि खेतों में पैदावार को बढाने में उपयोगी होती है।

केशव उसे भी वापिस फेंक देता है और मन ही मन सोचता है कि ऐसी कौन सी वस्तु हो सकती है जिसकी कोई उपयोगिता एवं मूल्य ना हो ? उसको कुछ भी समझ मे ना आने पर वह वापिस गुरूजी के पास जाता है और कहता है कि इस सृष्टि में बेकार कुछ भी नही है जब मिट्टी और कचरा भी काम आ जाते हैं तब बेकार की चीज़ क्या हो सकती है ?

गुरूजी ने उसे अपने पास स्नेहपूर्वक बैठाकर बताया कि अहंकार ही एक ऐसी चीज है जो व्यर्थ है और यदि इसे अपने मन से हटा दो सफलता के पथ पर स्वयं आगे बढते जाओगे। केशव स्वामी जी का भाव समझ गया और उसने मन में प्रण कर लिया कि अब वह अहंकार को त्याग कर गुरूजी के बताए मार्ग पर ही चलेगा।

23. आत्मनिर्भरता

रमेष एम बी ए की शिक्षा पूरी होने के उपरांत एक कंपनी में सेल्समेन के पद पर कार्यरत था। वह एक मध्यम परिवार से था और इस नौकरी पर ही उसका परिवार आश्रित था। उसने अपने कठिन परिश्रम, लगन एवं समर्पण से अपनी कंपनी के उत्पादन की बिक्री एक ही वर्ष में काफी बढ़ा दी थी, जिससे वह आश्वस्त था कि इससे उसे कंपनी में शीघ्र ही तरक्की प्राप्त होगी।

एक दिन उसे कंपनी के जनरल मैनेजर ने अपने पास बुलाकर उसकी तारीफ करते हुये उसके काम की प्रशंसा की और माल की बिक्री बढ़ाने के लिये उसे धन्यवाद दिया। इसके बाद वे बोले कि मुझे बहुत दुख है कि तुम्हे यह बताना पड रहा है कि मालिक के एक निकट रिश्तेदार जिन्होने हाल ही में सेल्स में एम बी ए किया है उन्हें तुम्हारे पद पर नियुक्त किया जा रहा है। हम तुम्हें एक माह का समय दे रहें हैं ताकि तुम कोई वैकल्पिक नौकरी खोज सको।

यह सुनकर रमेश के पांव तले जमीन खिसक गयी और उसने दुखी एवं निराश मन से घर जाकर अपनी माँ को यह बात बताई। उसकी माँ ने उसे समझाया कि जीवन में संकट तो आते ही रहते है। हमें उनका दृढ़ता पूर्वक मुकाबला कर चुनौती को स्वीकार करके उसके निदान की दिशा में प्रयास करना चाहिये। माँ के विचारों ने उसे इन विपरीत परिस्थितियों में भी संबल प्रदान किया। यह सुनकर रमेश ने चिंता छोड़कर इसके समाधान एवं भविष्य की कार्ययोजना पर गंभीर चिंतन, मनन प्रारंभ कर दिया।

उसके मन में विचार आया कि जब मैं कंपनी की बिक्री इतनी बढ़ा सकता हूँ तो क्यों ना मैं स्वयं ही इसी उत्पाद का छोटे रूप में निर्माण करके उसे बाजार में लेकर आ जाऊँ। रमेश इस दिशा में प्रयासरत हो गया और बैंक से कर्ज लेकर उसने उत्पादन प्रारंभ कर दिया उसे बिक्री के क्षेत्र में तो महारत हासिल थी ही और अपने संपर्कों के माध्यम से उसका पूरा उत्पादन आसानी से बाजार में बिकने लगा। अब धीरे धीरे उसने तरक्की करके उसे एक बड़ा रूप दे दिया। उसकी इस सफलता का सीधा प्रभाव उस कंपनी पर पडने लगा जहाँ वह काम करता था। वह कारखाना बिक्री कम होने के कारण घाटे में जाने लगा और एक दिन बंद हो गया।

कोई भी व्यवसाय चाटुकारों और अनुभवहीन रिश्तेदारों से नही चलाया जा सकता है। एक दिन रमेश सोच रहा था कि प्रभु की कितनी कृपा है कि उसे नौकरी से हटाया गया और उसने आत्मनिर्भर बनने के लिये स्वयं का यह काम आरंभ कर दिया। यदि उसे नौकरी से नही हटाया जाता तो उसका सारा जीवन नौकरी में ही बीत गया होता और वह जीवन में सफलता के इस मुकाम पर कभी नही पहुँच पाता। ईश्वर जो भी करता है हमारी भलाई के लिये ही करता है।

24. दस्तक

श्री रवि रंजन जी मध्यप्रदेश उच्च न्यायालय में एक प्रतिष्ठित अधिवक्ता के रुप में जाने जाते हैं। उनके अनुसार जीवन जीने की कला और वकालत का ज्ञान एवं साहित्यिक अभिरूचि की प्रेरणा उन्हें उनके पिता जी सुप्रसिद्ध अधिवक्ता श्री व्ही. पी. श्रीवास्तव जी से प्राप्त हुई। श्री वी.पी. श्रीवास्तव जी एक बहुत ही जीवट, दृढ़ निश्चय एवं बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी थे। रवि रंजन ने बताया कि उन्हें आज भी अच्छे से याद है कि उनके पिताजी कहा करते थे कि यदि कोई गरीब व्यक्ति न्याय पाने की आस में हमारे आफिस में आए और यदि उसके पास फीस देने की रकम ना भी हो तो उसे कभी बाहर मत करना उसकी बात ध्यान से सुनकर जो कुछ भी मदद हो सके वह कानून के अंतर्गत जरूर कर देना चाहिए।

अब पिताजी 90 वर्ष के हो गये थे और उन्हें पेट में दर्द की शिकायत थी जिसके निवारण के लिए चिकित्सकों ने आपरेशन कराना आवश्यक बताया था। हमने जब उन्हें इस बात से अवगत कराया तो वे मुस्कुराकर अपनी सहमति देते हुए बोले:-

दाग इस बहर-ए-जहां में, किश्ति-ए-उमरे रवां।

जिस जगह पर जा लगी, वहीं किनारा हो गया।।

उनके इस व्यवहार से हम सभी को ये प्रेरणा मिली कि इतनी उम्र के बाद भी उनमें सहनशक्ति थी और जीवन जीने की अभिलाषा उनके मन में थी। वे दुर्भाग्यवश आपरेशन के उपरान्त बच नहीं सके और दीपावली के अगले दिन उन्होंने अंतिम सांस ले ली। उनका उत्साही व्यक्तित्व, जीवन भर अपने कर्तव्य के प्रति समर्पित एवं पूरे परिवार को एक सूत्र में बांधने की क्षमता रखने वाले ऐसे व्यक्तित्व से जीवन जीने की कला की प्रेरणा मिलती हैं। रवि रंजन ने अपने पिताजी के निर्वाण दिवस को प्रेरणा दिवस के रूप में मनाने का निश्चय किया एवं उस दिन वे गरीबों को कानून संबंधी सलाह मशवरा निशुल्क देने लगे।

25. जनआकांक्षा

श्रीमती सुशीला सिंह एक कुशल गृहणी के साथ-साथ एक कुशल प्रशासक भी हैं। राजनीति में वे गहरी पैठ रखती हैं। वे पूर्व महापौर भी रह चुकी हैं।

उन्होंने राजनीति में रहते हुए भी ईमानदारी और नैतिकता से कभी समझौता नहीं किया। वे राजनीति में नीति को महत्व देती हैं। नीति विहीन राजनीति उनके स्वभाव मे नहीं है। वे राजनीति में उच्च आदर्शो की पोषक हैं। वे कहती हैं- वर्तमान में राजनीति एक व्यापार बन गयी है जिसने इसका स्वरुप विकृत कर दिया है। पहले के राजनीतिज्ञ एक प्रेरणा स्वरुप होते थे और जनता उनके पथ का अनुसरण करती थी। वे बताती हैं कि 1980 में वे बम्बई में एक समारोह में शामिल हुईं जिसकी सहभागिता ने मन में महिला सशक्तिकरण और जागरुकता के लिये काम करने की प्रेरणा जागृत की। उन्होंने संकल्प लिया कि वे जीवन पर्यन्त इसके लिये समर्पित रहेंगी। उनके जीवन पर राजमाता सिन्धिया जी की कार्यप्रणाली का बहुत जबरदस्त प्रभाव पड़ा है और वे उन्हें अपनी प्रेरणा मानती हैं।

श्रीमती सुशीला सिंह जी का मत है कि राजनीति में जो भी प्रवेश करे उसकी परिकल्पना इरादे एवं मंजिल बहुत स्पष्ट होनी चाहिए। उसे सेवा करने के लिये जनता के बीच जाना चाहिए न कि मेवा बटोरना उसका उद्देश्य हो। उनके द्वारा किये गये जनसेवा के कार्यों के लिये आज भी उन्हें याद किया जाता है। जैसे गृहनगर में फोरलेन सड़क का निर्माण, सड़कों के विस्तार हेतु धर्मस्थलों खासकर बाजारों को अतिक्रमण क्षेत्र से हटाकर बिना विवाद के उचित स्थल पर स्थानान्तरित करना जैसे महत्वपूर्ण कार्यों को सफलता पूर्वक सम्पन्न करना रहा है। इससे यह प्रेरणा मिलती है कि योग्य नेता को उसके पद से जाने के बाद भी जनता याद रखती है व उनका सम्मान करती है। श्रीमती सिंह की कर्मठता, लगनशीलता और कार्य के प्रति समर्पण मातृशक्ति के लिए प्रेरणा का प्रतीक है।

26. गुरू-शिष्य

श्री हरि भटनागर देश के सुप्रसिद्ध चित्रकार हैं। जिन्होंने एमब्रास्ड चित्रकारी में महारथ हासिल की है। वे इस क्षेत्र में देश के सर्वश्रेष्ठ चित्रकारों में से एक माने जाते हैं। श्री हरि भटनागर ने ग्वालियर के विक्टोरिया कालेज जो कि वर्तमान में महारानी लक्ष्मीबाई कालेज के नाम से जाना जाता है वहां से एम. काम. की शिक्षा पूरी की। उनकी आर्थिक स्थिति बहुत मजबूत नहीं थी। इसलिये उन्होंने राजस्व विभाग में नौकरी की ताकि पढ़ाई का खर्चा निकल सके। जब वे इस कालेज में अध्ययनरत थे तभी ग्वालियर में शासकीय ललित कला एकेडमी की स्थापना हुई। श्री भटनागर की बचपन से ही पेन्टिंग के क्षेत्र में गहरी अभिरूचि थी। उन्होंने वहां से पूर्णकालिक डिग्री लेकर जे. जे. स्कूल आफ फाइन आर्ट बाम्बे और मध्यप्रदेश से संयुक्त रुप से एडवांस डिप्लोमा आफ फाइन आर्ट किया जिसमें उन्हें सर्वोच्च स्थान प्राप्त हुआ था। उसके बाद उन्हें ग्वालियर कालेज में व्याख्याता के रुप में नियुक्त किया गया।

उन्होंने बतलाया कि ललित कला संस्थान में प्रवेश हेतु उन्हें बड़े पापड़ बेलने पड़े। वहां के तत्कालीन प्राचार्य श्री एल. एस. राजपूत ने उन्हें अयोग्य घोषित करके उनका प्रवेश पत्र रद्द कर दिया था। वे भारी मन से निराश होकर अपने घर जाने के लिये सीढ़ी से उतर रहे थे तभी श्री डी. डी. देवलारिकर जो कि उन्हें जानते थे एवं राजपूत जी के गुरू थे ने उनसे पूछा क्या बात है तो उन्होंने बताया कि मुझे प्रवेश नहीं दिया जा रहा है। यह सुनकर वे मुझे अपने साथ ऊपर ले गये और श्री राजपूत से पूछा कि इससे किस विधि में पेन्टिग बनवायी गयी है। उन्होंने कहा कि वाटर मार्क में। और जब वह बुलाकर डी. डी. देवलारिकर जी को दिखाई गई तो वे उससे काफी प्रभावित हुए। उनके निर्देशन पर राजपूत जी को पुनः विचार करके एडमीशन देना पड़ा।

श्री देवलारिकर जी को मध्यप्रदेश शासन ने छः माह के लिये इन्दौर से स्थानान्तरित करके ग्वालियर वहां की संस्थान को व्यवस्थित करने के लिये भेजा था। वे प्रसिद्ध चित्रकार थे जिन्होंने एम. एफ. हुसैन, बैंद्ले, मनोहर जोशी जैसे ख्याति प्राप्त चित्रकारों को चित्रकला की बारीकियां सिखलाईं थीं। वे पेन्टिग के क्षेत्र में मील का पत्थर माने जाते थे।

हरि भटनागर ने ललित कला संस्थान में शिक्षा लेना प्रारम्भ कर दिया किन्तु राजपूत जी मन ही मन में उनसे बहुत बैर रखते थे। एक दिन हरि भटनागर ने राजपूत जी के विषय में जानकारी प्राप्त की तो पता चला कि वे केवल दसवीं पास हैं। यह जानकर भटनागर उनके पास गये और उनसे बोले सर आप कम से कम मैट्रिक की परीक्षा तो उत्तीर्ण कर लें अन्यथा आपको रिटायरमेन्ट के बाद शासकीय सुविधाओं से वंचित होना पड़ेगा। ऐसा शासकीय नियम है। राजपूत जी ने जब पता किया तो यह जानकारी सही पायी गई और इससे उनका हृदय परिवर्तन हो गया। वे उन्हें एक दिन अपने घर ले गए, अपनी पत्नी से मिलवाया। उनकी कोई संतान नहीं थी वे हरि भटनागर को पुत्रवत स्नेह देने लगे। जब उनकी मृत्यु हुई तो मुखाग्नि हरि भटनागर ने ही दी और हरिद्वार जाकर उनका तर्पण किया। जब तक श्रीमती राजपूत रहीं हरि भटनागर प्रतिमाह उनके खर्चे के लिये रुपये भेजा करते थे। गुरु और शिष्य के बीच का ऐसा प्रेम आज दुर्लभ है और प्रेरणा का स्त्रोत है।

27. जब मैं शहंशाह बना

श्री केशव कुमार अग्रवाल जो कि चार्टर्ड एकाउण्टेण्ट हैं को आज के. कुमार के नाम से जाना जाता है। उनके पिता बाबू रामकिशोर अग्रवाल ’मनोज’ एक प्रतिष्ठित व्यवसायी होने के साथ ही एक लब्ध प्रतिष्ठित साहित्यकार भी थे। राम कथा के विभिन्न पक्षों पर उनके अनेक ग्रन्थ हैं। यही कारण है कि श्री के. कुमार को साहित्य और कला के क्षेत्र में रूचि एवं परख संस्कारों में मिली है।

हर साल एक जुलाई को नगर में सी. ए. डे मनाया जाता है। एक वर्ष सी. ए. डे की तैयारी के लिये सी. ए. राकेश खण्डेलवाल उनके पास आये और उन्होंने उनसे सी. ए. डे पर शहंशाह का रोल करने का प्रस्ताव रखा। श्री के. कुमार उस प्रस्ताव को स्वीकार नहीं कर पा रहे थे किन्तु साथियों के दबाव में उन्हें उसे स्वीकार करना पड़ा।

कार्यक्रम के पन्द्रह दिन पहले श्री खण्डेलवाल उन्हें लेकर नगर की प्रसिद्ध दुकान पर कास्ट्यूम लेने गए किन्तु वहाँ वह उपलब्ध नहीं हो सका। बिना कास्ट्यूम के यह प्रस्तुति संभव ही नहीं थी। इसके लिये उनके पुत्र सुरेश ने अपने रंगमंच के मित्र रविन्दर सिंह ग्रोवर से संपर्क किया। जब बात नहीं बनी तो रंगमण्डल के मेक-अप मैन श्री रोहित झा को बुलवाया गया। फिर सबने शहंशाह फिल्म देखी और तैयारियां प्रारम्भ हो गईं। ग्रोवर ने अमिताभ बच्चन जैसे काले और चमकदार पैण्ट की व्यवस्था की। गमबूट के लिये सुरेश ने सामान्य बूट के ऊपर रेगजीन का खोल तैयार करवाया। श्री रोहित झा ने स्टील के जाल की जगह रस्सी का जाल बनवाकर उसे एल्युमीनियम पेण्ट करवाया तो वह बिलकुल असली जैसा दिखने लगा। श्री रोहित झा ने ही बाजार से बाल खरीदकर बालों का विग और दाढ़ी तैयार की। इस प्रकार बड़े जतन और बड़े परिश्रम से पूरा कास्ट्यूम तैयार किया गया।

मोनू ने फिल्म से डायलाग चुना।

कौन हो तुम?

रिश्ते में तो हम तुम्हारे बाप होते हैं - नाम है शहंशाह।

तुम शायद ये नहीं जानते कि इस शहर में एक और अफसर आया है जो पुलिस की नौकरी नहीं करता लेकिन काम पुलिस का करता है। जो कानून की नौकरी नहीं करता पर अपना कानून खुद बनाता है और उसका पहला हुक्म यह है कि उसके इलाके में जुर्म न अपने पैरों पर खड़ा हो सकेगा ना ही कोई कानून के सिर पर बैठकर नाच सकेगा। ( फिर नेपथ्य से गाना - अंधेरी रातों में ............. )

उनसे कहा गया कि वे डायलाग याद करें। लेकिन वे अमिताभ बच्चन की आवाज का प्रभाव तो नहीं ला सकते थे। इसका रास्ता यह निकाला गया कि उस डायलाग की सी. डी. तैयार करवाई गई। फिर शुरू हुआ रिहर्सल का सिलसिला। ग्रोवर आफिस के बाद आते और रिहर्सल होती। जिस दिन शो होना था उसके एक दिन पहले शहीद स्मारक के रंगमंच पर फुलड्रेस रिहर्सल की गई।

नियत तिथि पर शो हुआ। 6 बजे से 8 बजे तक मेरा मेकअप हुआ। आखिर उनका नम्बर आया। पूरे हाल की लाइट बन्द कर दी गई। वे एक झिल्ली के परदे को फाड़ते हुए मंच पर आये। दो मिनिट का शो था। जब तक चलता रहा लोग सीटियाँ और तालियाँ बजाते रहे। श्री खण्डेलवाल इतने उत्साहित थे कि शो समाप्त होते ही आये और बोले- मेकअप मत उतारना। ऐसे ही आडियन्श में जाकर बैठना है।

आज भी वह दिन मुझे याद है। अपनी सफलता से मैं किसी बच्चे के समान उत्साहित था। आज भी वह सी. डी. देखकर गर्व अनुभव करता हूँ। मैं सोच भी नहीं सकता था कि सत्तर साल की उम्र में भी कोई ऐसा काम जिसे जीवन में कभी न किया गया हो वह सफलता पूर्वक किया जा सकता है। यह सच है कि यदि हम किसी कार्य को करने का बीड़ा उठा लें, हमारे सहयोगी और मार्गदर्शक हमारे साथ हों और हम पूरे परिश्रम के साथ उसे करें तो सफलता निश्चित मिलती है। किसी भी कार्य को करने में उम्र आड़े नहीं आती।

28. मातृ देवो भव

डा. अश्विनी देशमुख नगर के युवा दन्त चिकित्सक हैं। उन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय स्तर के मापदण्डों को ध्यान में रखते हुए अपने चिकित्सालय का निर्माण कराया है। भारत के सांस्कृतिक परिवेश से उन्हें बेहद लगाव है। सामाजिक कार्यों में वे बढ़चढ़कर भाग लेते हैं।

उस दिन देशमुख जी मरीज देखकर आई सी यू के सामने से गुजर रहे थे। आई सी यू के बाहर बनी पत्थर की लम्बी सीट पर मंजुला जी चादर बिछा रही थीं। उनके चेहरे पर गूढ़ चिन्ता थी। आँखें सजल और बोझिल थीं। डा. ने पूछा कि आप अभी तक यहीं हैं?

हाँ ! माँ की तबीयत अभी भी पूरी तरह स्थिर नहीं हुई है। आज थोड़ी बेहतर है।

तो आप यहीं इस पत्थर पर सोती हैं?

उन्होंने बड़ी सहजता से उत्तर देते हुए कहा- हाँ! भगवान की कृपा से मुझे रात को कहीं भी किसी भी स्थिति में नींद आ जाती है।

मैंने देखा- पत्थर की बेंच पर केवल चादर बिछा था। तकिया भी नहीं था। प्रतीक्षालय में ऊपर दो सीलिंग फैन चल रहे थे। अप्रेल का महीना था। दोपहर का तापमान 42 डिग्री तक हो जाता। रात को थोड़ी राहत होती थी।

आप कब से यहाँ ऐसे रह रही हैं?

तीन माह हो गए। मेरी माँ अन्दर चार नम्बर पलंग पर हैं। वे जीवन-मृत्यु से संघर्ष कर रही हैं। किडनी फेल है, प्रतिदिन डायलिसिस हो रहा है। वेन्टीलेटर पर हैं। यह तो मेरे जीवन की परीक्षा है। कर्तव्य पूरा करने का समय है।

माँ के विषय में बोलते हुए वे काफी भावुक हो चुकी थीं। जैसे स्वयं से ही कह रही थीं। डा. देशमुख के मन में एक अजीब सी सिहरन उठ रही थी। उन्होनें फिर पूछा-

यहाँ अच्छी नींद आ जाती है?

हाँ ! मैं पूरे समय यहीं रहती हूँ। सिर्फ खाना खाने, कपड़े धोने और उनके लिये सूप वगैरह बनाने जाती हूँ। लगभग दो घण्टे में काम पूरा हो जाता है। ( वे फिर खो गईं ) यही तो समय है जब मैं अपने अस्तित्व को दुनियाँ में लाने वाली माँ का कर्ज चुका सकती हूँ। कैसे भूल जाऊँ कि उसने मुझे इस दुनियाँ में लाने में असहनीय पीड़ा सही है। उसने संस्कार दिये और दुनियाँ में रहने के काबिल बनाया है।

उनकी आँखें छलक रही थीं और गला रूंध रहा था। मैं भी गंभीर था। उन्हें सान्त्वना देकर वहाँ से आगे बढ़ गया।

डा. देशमुख उस महिला के मातृप्रेम से अभिभूत हो गये उनके कानों में मंजुला के वे शब्द आज भी गूंजते हैं। उसका वह चेहरा और पत्थर की बेंच पर बिछा हुआ वह चादर आज भी उनकी आँखों में ज्यों का त्यों बसा हुआ है। लोग कहते हैं गुरू ही ब्रम्हा हैं गुरू ही विष्णु हैं और गुरू ही महेश हैं। गुरू साक्षात भगवान हैं। उस दिन मंजुला की प्रेम और सेवा भावना देखकर उनके मन में यह बात अच्छी तरह बैठ गई है कि माता-पिता का स्थान सर्वोपरि होता है। यदि वे हमें इस दुनियाँ में नहीं लाये होते तो गुरू भी नहीं मिलते, इसलिये माता-पिता का स्थान गुरू से भी श्रेष्ठ है।

29. जीवन-ज्योति

सुश्री लता गुप्ता जी मृदुभाषी, स्पष्टवक्ता, परिश्रमी व्यक्तित्व की धनी महिला हैं। ये एक सुप्रसिद्ध ब्यूटी पार्लर खूबसूरत की संस्थापक हैं। इसे उन्होंने बहुत परिश्रम एवं समर्पण के साथ बनाया है। इनके मन में बचपन से ही स्वयं कुछ करने का जुनून रहा है।

वे बतलाती हैं कि बचपन से ही उन्हें पढ़ने और एक अच्छा शिक्षक बनने की प्रबल आकांक्षा थी। घर की आर्थिक स्थिति अच्छी न होने के कारण विद्यार्थी जीवन से ही पढ़ाई के साथ साथ छोटे-मोटे काम करती थी जिससे कुछ आमदनी हो सके और पढ़ाई का खर्च चलता रहे। नगर में विश्वविद्यालय द्वारा एक अघ्ययन केन्द्र चलाया जा रहा था जहाँ पुस्तकें लेकर वहीं पढ़कर उन्हें वहीं वापिस करना पड़ता था। उस अघ्ययन केन्द्र में अध्ययन करके उन्होंने ग्रेजुएशन और फिर पोस्ट ग्रेजुएशन किया। पढ़ाई के दौरान ही वे राजस्थानी लहंगे, जूतियां, ज्वेलरी, साड़ियां आदि बेचा करती थीं। दिन-दिन भर पैदल भटकती थीं ताकि जो कमाई हो उसे जोड़ सकें। इसके बाद उन्होंने बी. एड किया। वे शिक्षिका बनने के लिये प्रयासरत रहीं। इसके लिये उन्होंने बड़े परिश्रम से प्रतियोगी परीक्षा पास की और इन्टरव्यू दिया परंतु उनका चयन नही हो सका।

इस घटना ने उनके अब तक के सारे परिश्रम पर पानी फेर दिया था। उन्होंने निश्चय कर लिया कि अब वे नौकरी नहीं करेंगी बल्कि अपना स्वयं का व्यवसाय विकसित करेंगी। पढ़ाई के दौरान उन्होंने एक ब्यूटी पार्लर में भी काम किया था। उनका वह अनुभव अब काम आया।

सुश्री गुप्ता ने अपने भाइयों की सहायता से एक ब्यूटी पार्लर प्रारम्भ किया। पिछले तेरह सालों में लगन और मेहनत से काम करते हुए उन्होंने अपनी अलग पहचान बनाई। उन्होंने काम की गुणवत्ता से कभी कोई समझौता नहीं किया। आज उनके पार्लर का इतना विस्तार हो गया है कि दस से भी अधिक लड़कियां उनके यहां काम करती हैं और वे भी कम पड़ती हैं। उनका सपना है कि वे एक ऐसी संस्था प्रारम्भ करें जिसमें जरुरतमंद बुजुर्गो और अनाथ बच्चों को सम्मानजनक जीवन जीने में सहायता मिले।

30. परिश्रम

सुनीता नाम की एक महिला उद्यमी थी जिसने बहुत कठिन परिश्रम कर अपने व्यवसाय को उन्न्ति के शिखर पर पहुँचाया था उसकी संस्था के द्वारा बनाए गये पापड़ देश के बाहर भी जाते थे। वह सभी के लिये एक प्रेरणा का स्त्रोत थी एवं उसका चयन स्थानीय चेंबर आफ कामर्स के द्वारा सर्वश्रेष्ठ महिला उद्यमी के पुरूस्कार हेतु किया गया था।

वह नियत तिथि पर अपना पुरूस्कार लेने पहुँची। वहाँ का पूरा सभागृह खचाखच भरा हुआ था, वह अपना नाम पुकारने पर मंच पर पुरूस्कार हेतु आगे बढ़ी परंतु अचानक उसका पैर मुड़ जाने के कारण वह मंच पर अकस्मात् ही गिर गयी। वह तुरंत ही उठकर खडी हुयी और इसके पहले वह हँसी की पात्र बनती माइक के पास पहुँच कर बोली कि मैं आयोजकों के प्रति बहुत आभारी हूँ जिन्होने मेरा चयन इस पुरूस्कार हेतु किया है, मुझसे कई लोगों ने पूछा कि मेरी प्रगति का क्या राज है ?

मैंने अभी गिरकर और उठकर सांकेतिक रूप में इस प्रश्न का जवाब देने का प्रयास किया है। मैंने जीवन में कई उतार चढ़ाव देखे हैं, और जीवन में उन्न्ति करने के लिये कई बार गिरी हूँ और वापिस उठकर और भी अधिक लगन और परिश्रम से लक्ष्य प्राप्ति की दिशा में आगे बढ़ी हूँ यही मेरी सफलता का राज है। जीवन में परेशानियाँ तो आती ही हैं और हमें इनका दृढ़ता पूर्वक मुकाबला करना चाहिये एवं विचलित नही होना चाहिये। जीवन में चुनौती और संघर्ष के बिना हमारा विकास संभव नही है। उसके प्रेरक विचारों को सुनकर सारा सभागृह तालियों की गड़गड़ाहट से गुंजायमान हो उठा और उसने अपना पुरूस्कार ग्रहण किया एवं धन्यवाद देती हुयी चली गई।

31. जादू की यादें

अंतर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त जादूगर एस. के. निगम कहते है कि जादू एक कला मिश्रित विज्ञान है। जादू में कोई अलौकिक शक्ति नहीं होती वह एक कला है। यह एक सशक्त रोजगार का साधन बन सकता है, हमारे देश को बहुमूल्य विदेशी मुद्रा दिला सकता है तथा अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में प्रगाढ़ता ला सकता है। यह एक ऐसी कला है जिसमें लोग धर्म, जाति, भाषा, राष्ट्रीयता को भूलकर जादू को रहस्य-रोमांच की नजर से देखते हुए स्वस्थ्य मनोरंजन पाकर प्रसन्न होते हैं। श्री निगम ने अपने जीवन में जादू के प्रदर्शन के दौरान घटी कुछ रोचक एवं प्रेरणादायक घटनाओं के विषय में बताया।

वे बोले कि जब वे आस्ट्रेलिया, न्यूजिलैण्ड और फिजी के दौरे पर थे तब फिजी की राजधानी सूबा में एक गुजराती परिवार की पुत्री बोली किसी ने मेरा कमरा बांध दिया है मेरी शादी की बात जहाँ भी पक्की होती है टूट जाती है। आप जादू से ऐसा करें कि मेरी शादी तय हो जाए। वह लड़की मेरे पैर पकड़े हुए थी छोड़ने को तैयार ही नहीं थी। मुझे मजबूर होकर एक साधारण काले रंग का धागा उसके गले में बांधकर किसी प्रकार अपना पीछा छुड़ाना पड़ा।

उन्होंने बताया कि जब वे प्रशान्त महासागर के द्वीपों में अमेरिकन समुआ आइलैण्ड में वहाँ की सड़कों पर आँखों में पट्टी बांधकर गाड़ी चलाने का प्रदर्शन आयोजित किया गया। उसे देखने के लिये वहां हजार लोगों की भीड़ जमा थी। मैंने आँखों पर पट्टी बांध कर मोटर साइकिल को चालू किया तभी वहाँ की पुलिस कमिश्नर ने आकर पूछा- श्रीमान जी अपना इन्टरनेशनल ड्राइविंग लायसेन्स बताइये अन्यथा मैं आपको गिरफ्तार कर सकता हूँ। मैं अजीब स्थिति में फंस गया। मेरे पास अंतर्राष्ट्रीय लायसेन्स नहीं था। यदि मैं प्रदर्शन को रद्द करता तो न केवल मेरी बल्कि भारत देश की मेरे कारण हंसी होती। मेरे कारण देश का नाम खराब हो यह मैं सहन नही कर सकता था। मैं मोटर साइकिल छोड़कर साइकिल पर सवार हो गया और आँखों पर पट्टी बांधकर पांच किलोमीटर का सफर पूरा किया। इससे मेरा प्रदर्शन सफलता पूर्वक सम्पन्न हुआ और वहां के कानून की अवहेलना भी नहीं हुई। दूसरे दिन वहां के सभी दैनिक अखबारों ने मुख्य पृष्ठ पर इस खबर को छापा।

32. करूणा

श्रीमती गीता शरत तिवारी एक कर्मठ, व्यवहारिक एवं कुशल प्रशासक हैं। उन्होंने 1985 में घटित घटना के विषय में बहुत भावुक होकर बताया कि करूणा नाम की एक पढ़ी लिखी संपन्न परिवार की लड़की का विवाह स्वाजातीय लड़के से हुआ था। लड़की के माता पिता ने अपनी हैसियत से भी ज्यादा दहेज दिया था व उन्हें पूरी आशा थी कि उनकी बच्ची करूणा आजीवन सुखी व प्रसन्न रहेगी। उसके विवाह के कुछ समय पश्चात ही करूणा को पता हुआ कि उसके पति का किसी दूसरी लड़की के साथ प्रेम संबंध हैं व इसकी जानकारी लड़के के माता पिता को भी थी परंतु फिर भी उन्होंने यह बात छिपा कर उसका विवाह कर दिया। अब ससुराल में सबका व्यवहार करूणा के प्रति बहुत खराब होकर उसे अप्रत्याशित प्रताड़ना देना, दुर्व्यवहार करना हो गया। करूणा कुछ दिनों तक तो यह सब सहती रही परंतु जब वेदना असहनीय हो गई तो उसने यह बात अपने माता पिता को बताई। वे यह सुनकर भौचक्के रह गये और उनके दिमाग में गीता तिवारी का ध्यान आया कि वह इस मामले उनकी जरूर मदद करेंगी।

गीता जी ने बताया कि जब वे सब बातों से वाकिफ हुयी तब इस निष्कर्ष पर पहुँची कि करूणा के मामले में समझौता संभव नही है। इसका हल केवल संबंध विच्छेद ही है और वे इस दिशा में कार्यरत हो गयी। गीता जी के पिताजी और करूणा के ससुर आपस में अच्छे दोस्त थे इसका लाभ उठाकर दोनो पक्षों में आपस में सहमति बनाकर संबंध विच्छेद कर दिया गया।

करूणा का विवाह गीता जी के सहयोग से एक दूसरे परिवार में वापिस किया गया जहाँ पर आज भी वह बहुत खुशी से रह रही है। इस प्रकार का पहला मामला श्रीमती गीता तिवारी के जीवन में आया था। इससे शिक्षा लेकर उन्होंने 1986 में अखिल भारतीय महिला परिषद के अंतर्गत प्रयास परिवार परामर्श केंद्र की स्थापना की ताकि महिलाओं को उत्पीड़न से बचाकर समय पर कानूनी कार्यवाही की जा सकें। इसी की तर्ज पर कुछ वर्षों बाद 1992 में पुलिस परिवार परामर्श केंद्र प्रारंभ हुआ। इन परामर्श केंद्रो से समाज काफी लाभांवित है एवं महिलाओं के उत्पीड़न के मामले में भी कमी आयी है।

33. योजना

मानसी मेहनती, बुद्धिमान एवं अपने कार्य के प्रति समर्पित महिला थी। वह कम्प्यूटर में डिप्लोमा लेकर एक कम्प्यूटर कंपनी में कार्यरत थी। उसने कड़ी मेहनत करके उस कंपनी के कम्प्यूटरों की बिक्री एक वर्ष में ही दुगुनी कर दी थी। उसके स्वभाव में एक बहुत बड़ी कमजोरी थी कि वह बहुत जल्दी क्रोधित हो जाती थी और ऐसे समय में स्वयं पर नियंत्रण खोकर अपने उच्चाधिकारियों से भी असभ्यता से पेश आती थी। उसके इस स्वभाव के कारण अधिकारियों की स्थिति बड़ी अजीब होकर उन्हें नीचा देखना पड़ता था। मानसी मन में आश्वस्त थी कि उसे सेल्स मेनेजर का पद उसकी मेहनत और कार्यक्षमता को देखते हुए मिल जाएगा। जब पदोन्नति का अवसर आया तो उच्चाधिकारियों ने उसके क्रोधी स्वभाव की आदत के कारण उसकी जगह किसी दूसरे को सेल्स मेनेजर का पद दे दिया।

यह बात पता होते ही मानसी गुस्से से तमतमा उठी और उसने अपने बास के केबिन में जाकर उनसे इसका कारण पूछा ? बास ने कहा कि तुम्हारे क्रोधी स्वभाव की वजह से तुम्हारी पदोन्नति नही हो सकी अतः तुम अपने स्वभाव में परिवर्तन करो। मैं तुम्हें आश्वस्त करता हूँ कि अगले वर्ष तुम्हें अवश्य पदोन्न्ति मिलेगी। यह सुनकर मानसी ने कहा कि वह एक साल तक इंतजार नही कर सकती और गुस्से में तमतमाते हुए उसने अपना इस्तीफा दे दिया। उसके कुछ दिनो बाद एक दूसरी प्रतिद्वंदी कम्प्यूटर कंपनी ने उसे अपने यहाँ सेल्स मेनेजर के पद पर नियुक्त कर दिया। मानसी मेधावी तो थी ही उसने कुछ ही महीनों में इस कंपनी की बिक्री बढ़ाकर अपने उच्चाधिकारियों को संतुष्ट कर दिया। इसका सीधा प्रभाव उस कंपनी पर पड़ा जहाँ वह पहले कार्य करती थी और उस कंपनी के घाटे में जाने की संभावना के कारण उसके मालिकों ने उसे बेचने का निर्णय ले लिया।

एक दिन मानसी घर पर गंभीरतापूर्वक विचार कर रही थी कि वह पुरानी कंपनी को खरीदने का सुझाव अपने मालिकों को दे दे। उसके मन में दूसरा विचार यह भी आ रहा था कि उसके संपर्क विक्रय विभाग में कार्य करने के कारण बाजार में सभी से बन गये हैं तो वह स्वयं ही बैंक से लोन लेकर कंपनी का अधिग्रहण कर ले। वह आवश्यक पूंजी जुटाकर कंपनी का अधिग्रहण करके मालिक बन जाती है। इतने गरिमापूर्ण पद पर आने पर वह अपने स्वभाव में पूर्णतः तब्दीली लाकर व्यवहारिक दृष्टिकोण अपना लेती है।

वह अपनी कड़ी मेहनत, ईमानदारी एवं स्पर्धा में कम कीमत रखने के कारण पूरे बाजार में छा जाती है। एक दिन ऐसा समय भी आ जाता है कि दूसरी कम्प्यूटर कंपनी को भी वह खरीद लेती है। वह धीरे धीरे उन्नति करते हुए कम्प्यूटर्स के उत्पादन के क्षेत्र में सर्वोच्च ऊँचाई पर पहुँच जाती है। उसके जीवन की यह संघर्ष गाथा यह बताती है कि महिलाएँ भी किसी भी क्षेत्र में पुरूषों से कमजोर नही है। वे परिश्रम से स्वावलंबी बनकर प्रेरणास्त्रोत बन सकती हैं।

34. उदारता

डा. विष्णु अग्निहोत्री राष्ट्रीय स्तर के एक अच्छे चित्रकार हैं। उन्होंने नाइफ के काम में मियामी विश्वविद्यालय अमेरिका से शिक्षा प्राप्त की है। बचपन से ही उन्हें चित्रकारी का शौक था और सीमित आर्थिक संसाधनों से जो भी संभव था उससे अपनी पेन्टिंग बनाया करते थे। उनकी बहुत इच्छा थी कि वे विदेशो में अपनी कला का प्रदर्शन करें। इसके लिये वे धन संग्रह करते रहते थे। उनके जीवन की सारी कठिनाइयों के बाद भी उनकी लगन और परिश्रम ने उन्हें वह सब दिया जो वे चाहते थे।

यह बात उन दिनों की है जब वे अपनी पेंटिंग्स के कारण चर्चित और स्थापित हो चुके थे। एक बार उन्हें एक सरकारी प्रस्ताव मिला जिसमें उनकी पेंटिंग्स की बिक्री की जाना थी और उससे प्राप्त होने वाली आय को अंध-मूक-बधिर बच्चों के लिये दिया जाना था। आयोजन अच्छी तरह सफल रहा। उनकी पेंटिंग्स अच्छे दामों में गईं और प्राप्त राशि को अंध-मूक-बधिर बच्चों के लिये दे दिया गया। उस आयोजन और उसके उद्देश्य से वे इतने प्रभावित हुए कि तब से लेकर अब तक वे अपनी पेंटिंग्स से होने वाली आय में से खर्च काटकर प्राप्त समस्त राषि को अंध-मूक-बधिर बच्चों के लिये दे दिया करते हैं। एक आयोजन ने उनके जीवन में एक ऐसा परिवर्तन कर दिया जो उन्हें आत्म संतोष और मानसिक शान्ति प्रदान करता है। वे कहते हैं कि हम सोचते बहुत कुछ हैं किन्तु करने वाला ईश्वर ही होता है। वह हमसे जब और जो कराना चाहता है हम वही करते हैं।

35. कर्तव्य

श्री इन्द्र प्रकाश अग्रवाल एक व्यापारी हैं। उनकी युवावस्था में एक दिन उनका पूरा परिवार जिसमें उनकी माँ और तीनों भाई शामिल थे, रामगंगा नदी बरेली में नहाने गये थे। वे स्नान करके एक टीले पर बैठे थे और ठण्डी हवा के झोकों का आनन्द ले रहे थे। अचानक ही उन्होंने देखा कि उनका छोटा भाई पानी के बहाव में अपना संतुलन खोकर नदी में बहने लगा है। यह देखकर बिना समय गवांए टीले से कूदकर वे उसे बचाने के लिये तैरते हुए उसके पास पहुँचे। अनुभवहीनता के कारण उसके द्वारा उन्हें पकड़ लेने से वे भी नदी में डूबने लगे। उनकी माँ और उनके भाई डर के मारे चीख रहे थे और उन्हें बचाने की गुहार लगा रहे थे।

ईश्वर की लीला निराली होती है। नदी में एक मल्लाह कुछ दूरी पर ही अपनी नाव में बैठा था। जैसे ही उसका ध्यान उनकी ओर गया वह बड़ी तत्परता के साथ नाव लेकर उन्हें बचाने तेजी से उनके पास पहुँच गया। उसके सहयोग से दोनों भाई नाव पर आ गये। उनके प्राणों की रक्षा हो चुकी थी।

तट पर आने के बाद परिवार के सभी लोग उस मल्लाह का आभार मान रहे थे। उनकी माँ की आँखें खुशी से छलक रहीं थीं। उन्होंने उस मल्लाह को इस कार्य के लिये पुरूस्कृत करने का प्रयास किया। मल्लाह ने विनम्रता के साथ कहा- मुझे जो भी देना है वह रामगंगा मैया दे देंगी। मैंने तो अपना फर्ज पूरा किया है। यह कहते हुए उसने कोई पुरूस्कार स्वीकार नहीं किया और वापिस अपनी नाव को लेकर आँखों से ओझल हो गया।

आज इन्द्र प्रकाश जी व्यापार से भी निवृत्त होकर आध्यात्मिक जीवन बिता रहे हैं और उनका वह छोटा भाई वेटेनरी डाक्टर के रूप में अपनी सेवाएं मोतीबाग वेटेनरी हास्पिटल दिल्ली को देने के बाद सेवानिवृत्त हो चुका है किंतु वह आज भी उस मल्लाह के स्वाभिमानी शब्दों एवं कर्तव्य परायणता को जीवन की प्रेरणा मानते हैं।

36. संतोष

प्रहलाद अग्रवाल एक व्यवसायी हैं। कुछ साल पहले वे मकराना राजस्थान अपने भतीजे संजय अग्रवाल के साथ संगमरमर खरीदने के लिये गये थे। वहाँ पर संगमरमर पसंद करने के बाद उसका भुगतान करके एक ट्रक में लदवा रहे थे। उसी समय ट्रक ड्राइवर और लदान करने वाले एक मजदूर के बीच झगड़ा हो गया। बात इतनी बढ़ गई कि उस ड्राइवर ने ट्रक में रखे सब्बल को निकाल लिया और क्रोध में आकर वह उस सब्बल को उस मजदूर के सिर पर मारने के लिये आगे बढ़ा। उसे बढ़ता देखकर उस समय अचानक उनकी कैसी मति हो गई कि उन्होंनें उस मजदूर के सिर को दूसरी ओर खींच लिया। इस प्रयास में उसकी वह सब्बल उनके हाथों को घायल करती हुई निकल गई। तब तक आसपास के लोग भी बीच बचाव करने आगे आ चुके थे। उन्हें शान्त करने के बाद लोग प्रहलाद को सीधे अस्पताल ले गये।

कलाई के पास और अंगुलियों की हड्डियां टूट चुकी थीं। चोट घातक थी। प्लास्टर बाँध दिया गया। पूरी तरह स्वस्थ्य होने में दो माह से भी अधिक का समय लगा। एक ओर तो चोट की पीड़ा थी किन्तु दूसरी ओर यह संतोष था कि उनके प्रयास ने एक जान की रक्षा कर ली। चोट तो कुछ समय में ही ठीक हो गई और सारी पीड़ा समाप्त हो गई किन्तु वह संतोष आज भी अनुभव होता है।

37. सफलता के सोपान

राजीव गौतम एक प्रसिद्ध व्यवसायी हैं। उन्होंने कड़ी मेहनत और लगन से अपने व्यापार को फर्श से अर्श तक पहुँचाया। उनके परिवार की पृष्ठभूमि व्यवसायिक नहीं थी, किन्तु वे इस क्षेत्र में आगे बढ़ने के लिये कृत संकल्पित थे। उनके पिता एक राष्ट्रीयकृत बैंक में उच्चाधिकारी थे। उन्होंने यह जानकर कि राजीव की इच्छा व्यापार करने की है उन्हें अपने मित्र श्री एस. पी. धीर से मिलवाया जो कि आगरा के एक प्रसिद्ध व्यवसायी थे। उन्होंने अपने व्यापार को बढ़ाने के दृष्टिकोण से कोको कोला कंपनी के उत्पादनों के वितरण का नया काम आरंभ किया जिसमें उन्होंने राजीव को अपना बीस प्रतिशत का भागीदार बनाया और व्यापार सीखने में भी मदद दी। राजीव ने सुबह 6 बजे से रात के बारह बजे तक कड़ी मेहनत करके उनके व्यापार को कई गुना बढ़ा दिया। श्री धीर ने कार्य के प्रति उनकी निष्ठा, समर्पण और लगन को देखते हुए उनकी भागीदारी बीस प्रतिशत से बढ़ाकर चालीस प्रतिशत कर दी। उन्होंने लगभग चार वर्ष तक यह कार्य किया तभी केन्द्र में सत्ता परिवर्तन हो जाने के कारण राष्ट्रीय नीति के अंतर्गत कोकाकोला के प्लांट को बन्द करा दिया गया।

अब राजीव नये व्यापार की तलाश में जुट गये। उसी समय उनका एक मित्र आगरा में एचएमटी टैक्टर का वितरक था तथा वह अच्छा लाभ भी कमा रहा था। उसने इन्हें सुझाव दिया कि जबलपुर संभाग में अभी कोई एचएमटी का वितरक नहीं है। यदि तुम प्रयास करो तो वहाँ के वितरक बन सकते हो। उसके परामर्श पर इन्होंने एचएमटी की डीलरशिप ले ली और जबलपुर आ गये। उस समय इनके पास कुल जमा पूँजी अठहत्तर हजार रूपये ही थी। इनके ससुर ने भी इनकी मदद की और बैंक से साढ़े तीन लाख का कर्ज अपनी गारण्टी पर दिलवा दिया। इन्होंने जबलपुर आकर अपना आफिस खोला और पाँच सौ रूपये प्रतिमाह के किराये पर दो दुकाने लेकर कम्पनी से सात टैक्टर शोरूम में रखकर उनकी बिक्री के लिये प्रयासरत हो गए।

राजीव को उस समय गहरा सदमा लगा कि टैक्टर खरीदना तो दूर कोई उसकी जानकारी लेने तक नहीं आ रहा था। उन्हें अब अपनी पूरी रकम डूबती नजर आ रही थी क्योंकि यहाँ के किसान पुराने ढर्रे पर चल रहे थे। वे मशीनों के माध्यम से उन्नत खेती करने के इच्छुक नहीं थे। इस पूरे संभाग में एचएमटी टैक्टर का नाम भी कोई नहीं जानता था। इस विपरीत परिस्थिति को चुनौती के रुप में स्वीकार करते हुए दिन-रात परिश्रम करके मोटर साइकिल से नरसिंहपुर, दमोह, सागर मण्डला और कटनी तक के ग्रामीण क्षेत्रों में ठण्ड, गर्मी व बरसात की परवाह न करते हुए जाकर किसानों को समझाकर उन्होंने अपने व्यापार को बढ़ाया तथा पहले ही वर्ष में सत्तर टैक्टर बेचकर अपनी पूंजी को दुगना कर लिया। इस उपलब्धि को देखते हुए कम्पनी ने उन्हें पुरूस्कृत करते हुए प्रदेश के दूसरे संभागों का वितरण भी सौंप दिया। उन्होंने बारह वर्षों तक इस कार्य को संभाला। इसके बाद तो इस व्यापार में उनकी तूती बोलने लगी। उन्होंने 1983 में बजाज टेम्पो लिमिटेड के उत्पादनों की डीलरशिप ले ली। इसके बाद 1986 में मारूती कार का जबलपुर सागर और रीवा संभाग का तथा 1993 में इन्दौर संभाग का वितरण लेकर तेइस वर्षों तक उसका कुशल संचालन किया। वे मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ के सबसे बड़े डीलर के रूप में जाने जाते रहे।

वे कहते हैं कि ईश्वर पर अटूट विश्वास, कड़ी मेहनत, लगन और अपने ग्राहक की संतुष्टि को प्राथमिकता देकर ही किसी भी व्यापार में सफल हुआ जा सकता है। हमारे मन में सफलता प्राप्त करने की दृढ़ इच्छा शक्ति और आत्म विश्वास भी होना चाहिए। जीवन में आने वाले संघर्षों से विचलित हुए बिना कार्य करते रहना चाहिए।

38. जनसेवा

रामप्रसाद तिवारी नाम के एक ठेकेदार जिनका काम ट्यूबवेल के बोर की खुदाई का था अपने नेत्रहीन होने के बावजूद भी सुचारू रूप से कर लेते थे। उन्हें एक विलक्षण प्रतिभा प्राप्त थी कि वे मिट्टी को चखकर उसके प्रकार कि वह काली मिट्टी है या पीली पथरीली है या मुरम, कड़क है या खोखली आदि बता देते थे। वे इसके साथ साथ कौन सी मिट्टी कितने फीट गहराई तक है इसे भी लगभग सही बता देते थे। उनकी इस प्रतिभा के देखकर सभी आश्चर्यचकित रह जाते थे। उनके नेत्रहीन होने के कारण उनको कोई खुदाई के संबंध में बेवकूफ नही बना सकता था।

वे बहुत दयालु एवं वक्त पड़ने पर मददगार स्वभाव के व्यक्तित्व के धनी थे। एक बार गलती से 12 इंच के बोर में लगभग दस फीट गहराई पर एक छोटा बच्चा गिरकर अंदर चला गया। वहाँ पर इस दुर्घटना से हाहाकार मच गया और पुलिस भी आ गई। रामप्रसाद को जैसे ही यह सूचना प्राप्त हुई वे अपने बच्चे को लेकर दुर्घटना स्थल पर पहुँचे और वहाँ खड़ी भारी भीड़ को एवं गिरे हुए बच्चे के माता पिता को बोले की आप लोग शांति रखिए। इतना कहकर उन्होने अपने बच्चे के पांव में रस्सी बाँधी और उसको उलटा लटकाकर नीचे गहरे गड्ढे में उतार दिया। उस बच्चे ने गिरे हुए बच्चे का हाथ पकड लिया एवं रस्सी को ऊपर खींचने का इशारा कर दिया। इस प्रकार दोनो बच्चे सुरक्षित ऊपर आ गये। उस बच्चे के माता पिता की खुशी का कोई अंत नही था, वे बारंबार तिवारी जी का धन्यवाद दे रहे थे। आज भी उनकी जनसेवा को लोग याद करते हैं। उन्होने अपने जीवन में नेत्रहीनता को अभिशाप नही समझा और आत्मबल एवं आत्मसम्मान के माध्यम से स्वरोजगार को अपनाते हुए अपना जीवन सुख पूर्वक व्यतीत किया।

39. स्मृति गंगा

मैं आज अपने अतीत की ओर देख रहा था जब मैं कक्षा ग्यारहवीं उत्तीर्ण करके महाविद्यालय में प्रवेश लेने वाला था। हमारी शाला की परंपरा के अनुसार प्रधानाचार्य महोदय ने शाला छोड़ने से पहले विदाई समारोह में अपना प्रेरक उद्बोधन देते हुए कहा कि तुम सभी की हायर सेकेंड्री तक की शिक्षा पूरी हो चुकी है। मैं तुम सभी के उज्जवल भविष्य एवं सफल जीवन की कामना करता हूँ। इस शाला से विदा होने के पूर्व मैं तुम सभी को कुछ व्यवहारिक बातें बताना चाहता हूँ जो कि संभवतः तुम्हारे जीवन में सहायक होंगी।

जीवन में समझदार व्यक्ति कठिन परिस्थितियों में भी अपने प्रतिद्वंदी की गतिविधियों से ही उसके आगे की कार्ययोजना को भांपकर अपने को सुरक्षित कर लेता है परंतु मूर्ख व्यक्ति सबकुछ जानकर भी नही संभलता और तिरस्कार का पात्र बनता है।

ज्ञान एक ऐसी दिव्य ज्योति है जिसके बिना जीवन अपूर्ण है। इस ज्योति का प्रकाश कभी समाप्त नही होता। ज्ञान अनंत है जितना आपकी क्षमता हो आप उतना प्राप्त करके जीवन में आगे बढ़ सकते हैं।

कोई व्यक्ति दीन हीन एवं गरीब हो उसे तुम उसकी गलती पर डाँटकर अपनी बात कह सकते हो परंतु उसका अपमान कभी मत करना अन्यथा वह जीवन पर्यंत तुमसे बदला लेने का प्रयास करता रहेगा।

जीवन में एक साथ कई कामों को करने का प्रयास नही करना चाहिये। इससे हमारी ऊर्जा बंट जाती है और समय की कमी के कारण इन सभी के साथ न्याय नही कर पाते हैं। इसलिये यह आवश्यक है कि मनन, मंथन करके एक या दो काम हाथ में लेकर उनके प्रति समर्पित होकर पूरी एकाग्रता के साथ संपन्न करों ताकि उसमें सफल हो सको। यदि आपको किसी काम में सफलता मिलने की उम्मीद नही है तो जिद करके समय नष्ट ना करें अपना रास्ता बदलकर किसी दूसरे काम की ओर अपने को मोड ले।

हमें बातें कम और काम ज्यादा पर ध्यान देना चाहिये। समाज में बड़बोले का मान सम्मान नही होता जो सकारात्मक सृजन करके समाज को नयी दिशा देता है उसे जीवन पर्यंत मान सम्मान के साथ याद रखा जाता है। समाज में जो व्यक्ति सफल होता है उसकी वाह वाही होती है परंतु असफल व्यक्ति का कोई इतिहास नही रहता।

जीवन में प्रतिष्ठा बहुत बड़ी पूंजी होती है इसे हर हाल में सहेज कर रखिये। जीवन में कभी ऐसा कोई काम ना करें जिससे की मान सम्मान और प्रतिष्ठा पर आंच आये। ये कई वर्षों की मेहनत का प्रतिफल होता है जिसे मिटाने में कुछ मिनिट का ही समय लगता है। जीवन में यदि आपको कभी कर्ज लेना पड़े तो उसे समय पर चुकता करने का ध्यान रखिये।

जीवन में ईमानदारी और नैतिकता के पथ पर चलें आप ध्यान रखियेगा कि ईमानदारी से कमाया गया दस रूपया बेईमानी से कमाये गये सौ रूपये से भी ज्यादा मूल्यवान होता है।

आप जीवन के किसी भी क्षेत्र में चाहे वह व्यापार हो या नौकरी अपने प्रतिद्वंदी से सावधान रहिये। यदि वह किसी प्रकार से आपको नीचा दिखाने के लिये प्रयास करता है तो आप इसका माकूल जवाब देकर उसे अधमरा मत छोडना। उसके दुर्भावना पूर्ण विचारों को पूर्ण रूप से खत्म कर देना ताकि वह वापिस तुम पर वार कभी ना कर सके।

इतना कहकर प्रधानाचार्य श्री एस.पी निगम ने अपनी बात समाप्त की। उस दिन प्राचार्य जी भावनाओं से भरे दिखाई दे रहे थे। वे बोल रहे थे और हम मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे। उनके वचन आज भी हमारे कानों में गूंजते हैं और हमारा पथ प्रदर्शन करते हैं।

40. गुरूता

प्रोफेसर एस. पी. दुबे दर्शन शास्त्र के प्रकाण्ड पंडित थे। मैंगलोर का एक शोध छात्र विद्यालंकार आयंगर उनके पास मार्गदर्षन हेतु आता था। वह उनके प्रति बहुत समर्पित, आज्ञाकारी तथा सेवाभावी था। प्रोफेसर दुबे भी उसके व्यवहार से प्रभावित थे और उसे पुत्रवत स्नेह करते थे। एक बार वह मैंगलोर वापिस जाते समय अपने गुरू प्रो. दुबे से यह आष्वासन लेता है कि उसके विवाह के लिये लड़की वे ही पसंद करेंगे। उसके माता-पिता पुराने विचारों के हैं और उन्हें समझाने का कार्य वे ही कर सकते हैं।

कुछ दिनों बाद ही प्रो. दुबे को मैंगलोर के विष्वविद्यालय से ’’ वर्तमान पृष्ठभूमि में दर्शन शास्त्र की महत्ता’’ विषय पर आख्यान देने के लिये आमंत्रण प्राप्त हुआ। उसी समय विद्यालंकार का आग्रह भी उन्हें प्राप्त होता है जिसमें उसने एक रिश्ते के संबंध में चर्चा की थी। प्रो. दुबे के स्वास्थ्य के कारण घर के सदस्य नहीं चाहते थे कि वे इतनी लम्बी यात्रा करें किन्तु वे यह कहते हुए वहाँ जाने का निश्चय करते हैं कि उन्होंने विद्यालंकार को आश्वस्त किया था कि कितनी भी विपरीत परिस्थितियाँ हों वे एक बार अवश्य वहाँ पहुँचेंगे।

नियत तिथि को जब वे जबलपुर हवाई अड्डे से मुंबई के लिये रवाना हुये तो मौसम की विपरीत परिस्थितियो के कारण अत्यंत कठिनाईयों में वे ऐसे समय पर मैंगलोर पहुँचे जब उनके व्याख्यान को कुछ ही समय शेष रह गया था।

पहुँचते ही वे शीघ्रता से तैयार हुए और कार्यक्रम में उपस्थित हो गए। उनका उद्बोधन अत्यन्त प्रेरक रहा। उन्होंने वहाँ दर्शन शास्त्र विभाग की भावी योजनाओं हेतु अपनी ओर से एक लाख रूपयों का चैक आयोजकों को समर्पित किया। इसका परिणाम यह हुआ कि उस योजना के लिये वहाँ लगभग पच्चीस लाख रूपये संग्रहित हो गए। इसके लिये आयोजकों ने तथा विष्वविद्यालय ने दुबे जी को अत्यन्त आत्मीय आभार व्यक्त किया।

इसके बाद विद्यालंकार ने उन्हे उस लड़की से मिलवाया जिससे वह विवाह करना चाहता था किन्तु उसके विजातीय होने के कारण उसके माता-पिता इस संबंध के लिये तैयार नहीं हो रहे थे। प्रो. दुबे ने विद्यालंकार के माता-पिता से भेंट की और उन्हें उस संबंध के लिये सहमत कर लिया। विद्यालंकार के माता पिता प्रो. दुबे की समझाइश से संतुष्ट हो गये उन्होंने यह शर्त रखी कि बेटा आपको बहुत मानता है अतः यह आपकी उपस्थिति में शीघ्र ही सम्पन्न हो तो अति उत्तम रहेगा। यह विवाह शीघ्र ही संपन्न कराया गया एवं प्रो. दुबे ने वर वधु को सफल एवं सुखी जीवन का आषीर्वाद दिया। विद्यालंकार एवं उसकी पत्नी ने गुरू के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए कहा कि हमारे जीवन में यह अविस्मरणीय क्षण है कि हमारे नवजीवन की शुरूआत आपके आशीर्वाद से हो रही है। आज दुबे जी हमारे बीच में नही हैं परंतु आज भी गुरू-षिष्य संबंधों और उनके बीच की आत्मीयता के संदर्भ में उनके जानने वाले इस घटना का उल्लेख करते हैं।

41. कालिख

श्री पुरूषोत्तम भट्ट एक सेवानिवृत्त जिला न्यायाधीश हैं। उनके जीवन में आये अविस्मरणीय प्रकरणों में से एक आनर किलिंग का ऐसा प्रकरण है जिसमें एक अबोध की हत्या न केवल हमारे झूठे अहंकार का उदाहरण है वरन् वह अव्यवहारिक और मूखर्तापूर्ण आचरण को भी दर्शाता है।

एक गांव की एक लड़की का विवाह उसके गांव के नजदीक के ही दूसरे गांव में हुआ। लड़की विदा होकर जब ससुराल पहुँची तभी उसके पेट में दर्द होने लगा। गांव के वैद्य को जब उसके उपचार के लिये बुलाया गया तो पता चला कि वह गर्भवती है। उसने एक पुत्र को जन्म दिया। इस घटना से उसके ससुराल वाले हत्प्रभ थे। उन्होंने लड़की के पिता को बुलवाया और सारी स्थिति से अवगत करवाने के बाद उन्हें लड़की और उसके पुत्र को ले जाने को कहा। पिता के पास भी कोई चारा नहीं था। वह दोनों को लेकर अपने घर आ गया।

अपने गांव में आकर उसने गांव के प्रतिष्ठित व्यक्तियों को इस घटना की जानकारी दी और पंचायत में जोड़े जाने की प्रार्थना की। पंचायत बुलवाई गई। सारा गांव एकत्र हुआ था। पंचायत में उस लड़की से उस बच्चे के पिता का नाम पूछा गया।

लड़की ने बतलाया कि उस बच्चे का पिता गांव का ही एक व्यक्ति था जो सेना में सिपाही था। नौ माह पहले जब वह अवकाश में गांव आया था तभी उससे उसका प्रेम संबंध बना था। उसी के परिणाम स्वरूप वह कुवांरेपन में ही गर्भवती हो गई थी। उसने यह भी बताया कि उसके माता-पिता ने लोकलाज के भय से उसकी ससुराल वालों को अंधकार में रखकर उसका विवाह करवा दिया था।

पंचायत में उस सैनिक के पिता और उसके तीनों भाई भी थे। उन्होंने जब यह सुना तो पंचायत को वचन दिया कि वे अपने सैनिक पुत्र से बात करके वास्तविकता का पता लगाएंगे और यदि यह बात सच हुई तो वे अपने पुत्र का विवाह उस लड़की से करके उसे उसके बच्चे सहित अपना लेंगे।

सैनिक के पिता और उसके भाइयों ने ट्रककाल करके उस सैनिक से इस संबंध में पूछताछ की। उस सैनिक ने स्वीकार किया कि उसका उस लड़की से संबंध था और वह ही उसकी संतान का पिता है।

सैनिक के परिवार वालों ने उस लड़की से सैनिक का विवाह करना स्वीकार कर लिया और उनके बीच यह सहमति बनी कि लड़की के परिवार वाले सैनिक के आने तक प्रतीक्षा करें और तब तक वह लड़की अपने पिता के ही साथ रहे।

लगभग एक सप्ताह बाद अचानक उस बच्चे का स्वास्थ्य खराब हो गया। सैनिक के तीनों भाई उस बच्चे का उपचार करवाने और उसे टीके आदि लगवाने की बात कहकर उसे ले जाकर नदी में फेंक दिया। यह पता चलने पर हत्या की रिपोर्ट दर्ज हुई और माँ बेटी वहीं रोती रहीं। पुलिस ने सभी आरोपियों को अभिरक्षा में लिया और विवेचना के बाद प्रकरण न्यायालय में पेश किया गया। न्यायालय में प्रकरण चला और अंत में आरोपियों को उनके अपराध का दोषी पाते हुए यथोचित दण्ड दिया गया।

अवैध संबंधों से उत्पन्न संतान को अपनाने से बचने के लिये, उनने एक अबोध और निरपराध बच्चे की हत्या कर दी। उनने यह सोचा ही नहीं कि आखिर उस बच्चे का कसूर क्या था ? उसे किस अपराध की सजा दी गई थी ?

यदि बुद्धिमत्ता से काम लिया गया होता तो उस सैनिक का विवाह उस लड़की के साथ करके सभी को सम्मान पूर्वक जीने का अवसर दिया जा सकता था। यदि उस बच्चे को नहीं भी अपनाना था तो उसे गोद लिया या दिया जा सकता था। लेकिन थोथे सामाजिक सम्मान के नाम पर एक निर्मम और जघन्य अपराध किया गया जिसने मानवीयता के मुख पर कालिख पोत दी।

42. जीवन दर्शन

मैं और मेरा मित्र सतीश अवस्थी आपस में चर्चा कर रहे थे। हमारी चर्चा का विषय था हमारा जीवन क्रम कैसा हो? हम दोंनों इस बात पर एकमत थे कि मानव प्रभु की सर्वश्रेष्ठ कृति है और हमें अपने तन और मन को तपोवन का रुप देकर जनहित में समर्पित करने हेतु तत्पर रहना चाहिए। हमें औरों की पीड़ा को कम करने का भरसक प्रयास करना चाहिए। हमें माता-पिता और गुरूओं का आशीर्वाद लेकर जीवन की राहों में आगे बढ़ना चाहिए। मनसा वाचा कर्मणा, सत्यमेव जयते, सत्यम् शिवम् सुन्दरम आदि का जीवन में समन्वय हो तभी हमारा जीवन सार्थक होगा और हम समृद्धि सुख व वैभव प्राप्त करके धर्म पूर्वक कर्म कर सकेंगे।

एक दिन सतीश सुबह-सुबह ही सूर्योदय के पूर्व मेरे निवास पर आ गया और बोला- चलो नर्मदा मैया के दर्शन करके आते हैं। मैं सहमति देते हुए उसके साथ चल दिया लगभग आधे घण्टे में हमलोग नर्मदा तट पर पहुँच गये। हमने रवाना होने के पहले ही अपने पण्डा जी को सूचना दे दी थी हम कुछ ही देर में उनके पास पहुँच रहे हैं। वे वहां पर हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे।

चरण स्पर्श पण्डित जी!

सदा सुखी रहें जजमान। आज अचानक यहां कैसे आना हो गया।

कुछ नहीं। ऐसे ही नर्मदा जी के दर्शन करने आ गये। सोचा आपसे भी मुलाकात हो जाएगी। पण्डित जी आज आप हमें किसी ऐसे स्थान पर ले चलिये जहां बिल्कुल हल्लागुल्ला न हो। केवल शान्ति और एकान्त हो। सिर्फ हम हों और नर्मदा मैया हों।

पूजा-पाठ और स्नानध्यान का सामान साथ में रख लें?

नहीं! हमलोग सिर्फ नर्मदा मैया के दर्शन करने का संकल्प लेकर आए हैं।

उत्तर सुनकर पण्डित जी हमें लेकर आगे-आगे चल दिये। वे हमें एक ऐसे घाट पर ले गये जहां पूर्ण एकान्त था और हम तीनों के अलावा वहां कोई नहीं था।

नर्मदा का विहंगम दृष्य हमारे सामने था। सूर्योदय होने ही वाला था। आकाश में ललामी छायी हुई थी। पक्षी अपने घोंसलों को छोड़कर आकाश में उड़ाने भर रहे थे। क्षितिज से भगवान भुवन भास्कर झांकने लगे थे। उनका दिव्य आलोक दसों दिशाओं को प्रकाशित कर रहा था। हम अपने अंदर एक अलौकिक आनन्द एवं ऊर्जा का संचार अनुभव कर रहे थे। हमें जीवन में एक नये दिन के प्रारम्भ की अनुभूति हो रही थी।

हमारी दृष्टि दाहिनी ओर गई वहां के दृष्य को देखकर हम रोमांचित हो गए। हम जहां खड़े थे वह एक शमशान था। पिछले दिनों वहां कोई शवदाह हुआ था। चिता की आग ठण्डी पड़ चुकी थी। राख के साथ ही मरने वाले की जली हुई अस्थियां अपनी सद्गति की प्रतीक्षा कर रही थीं।

सतीश भी इस दृश्य को देख चुका था। वह आकाश की ओर देखकर कह रहा था-प्रभु! मृतात्मा को शान्ति प्रदान करना।

मेरे मन में कल्पनाओं की लहरें उठ रहीं थीं। मन कह रहा था- अथक प्रयास के बावजूद भी उसके घरवाले व रिश्तेदार विवश और लाचार हो गए होंगे और उस व्यक्ति की सांसें समाप्त हो गई होगीं। सांसों के चुकने के बाद तो औपचारिकताएं ही रह जाती हैं। जो यहां आकर पूरी होती हैं।

हम अपने विचारों में खोये हुए थे कि वहां कुछ दूर पर हमें एक संत शान्त मुद्रा में बैठे दिखलाई दिये। हम न जाने किस आकर्षण में उनकी ओर खिचे चले गये। उनके पास पहुँचकर हमने उनका अभिवादन किया और उनके सम्मुख बैठ गये। उन्हें हमारे आने का आभास हो गया था। वे आंखें खोलकर हमारी ही ओर निर्विकार भाव से देख रहे थे। उनकी आंखें जैसे हमसे पूछ रही थीं- कहिये कैसे आना हुआ?

महाराज यह दुनियां इतने रंगों से भरी हुई है। जीवन में इतना सुख, इतना आनन्द है। आप यह सब छोड़कर इस वीराने में क्या खोज रहे हैं।

वे बोले- यह एक जटिल विषय है। संसार एक नदी है, जीवन है नाव, भाग्य है नाविक, हमारे कर्म हैं पतवार, तरंग व लहर हैं सुख व तूफान, भंवर है दुख, पाल है भक्ति जो नदी के बहाव व हवा की दिशा में जीवन को आगे ले जाती है। नाव की गति को नियन्त्रित करके बहाव और गन्तव्य की दिशा में समन्वय स्थापित करके जीवन की सद्गति व दुगर्ति भाग्य, भक्ति, धर्म एवं कर्म के द्वारा निर्धारित होती है। यही हमारे जीवन की नियति है। इतना कहकर वे नर्मदा से जल लाने के लिये घाट से नीचे की ओर उतर गये।

हम समझ गये कि वे सन्यासी हमसे आगे बात नहीं करना चाहते थे। हम भी उठकर वापिस जाने के लिये आगे बढ़ गये। शमशान से बाहर भी नहीं आ पाये थे कि शमशान से लगकर पड़ी जमीन पर कुछ परिवार झोपड़े बनाकर रहते दिखलाई दिये।

वे साधन विहीन लोग अपने सिर को छुपाने के लिये कच्ची झोपड़ी बनाकर रह रहे थे। उनका जीवन स्तर हमारी कल्पना के विपरीत था। उन्हें न ही शुद्ध पानी उपलब्ध था और न ही शौच आदि नित्यकर्म के लिये कोई व्यवस्था थी। उनके जीवन की वास्तविकता हमारी नजरों के सामने थी।

उसे देखकर सतीश बोला- अत्यधिक गरीबी व अमीरी दोनों ही दुख का कारण होते हैं। जीवन में गरीबी अभावों को जन्म देती है और अपराधीकरण एवं असामाजिक गतिविधियों की जन्मदाता बनती है। इसी प्रकार अत्यधिक धन भी अमीरी का अहंकार पैदा करता है और दुर्व्यसनो एवं कुरीतियों में लिप्त कर देता है। यह मदिरा, व्यभिचार, जुआ-सट्टा आदि दुर्व्यसनो में लिप्त कराकर हमारा नैतिक पतन करता है।

हमारे यहां इसीलिये कहा जाता है कि- साईं इतना दीजिये जा में कुटुम समाय, मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाय। हमें पर उपकार एवं जनसेवा में ही जीवन जीना चाहिए ताकि इस संसार से निर्गमन होने पर लोगों के दिलों में हमारी छाप बनी रहे।

धन से हमारी आवश्यकताएं पूरी हो तथा उसका सदुपयोग हो। यह देखना हमारा नैतिक दायित्व है धन न तो व्यर्थ नष्ट हो और न ही उसका दुरूपयोग हो । मैंने सतीश से कहा कि आज हमें जीवन दर्शन हो गए हैं। हमारे सामने सूर्योदय का दृष्य है जो सुख का प्रतीक है। एक दिशा में गरीबी दिख रही है दूसरी दिशा में जीवन का अन्त हम देख रहे हैं। हमारे पीछे खड़ी हुई हमारी यह मर्सडीज कार हमारे वैभव का आभास दे रही है। यही जीवन की वास्तविकता एवं यथार्थ है। आओ अब हम वापिस चलें।

43. जीवटता

राजीव को बचपन से ही हाकी खेलने का बहुत शौक था। वह बड़ा होने पर इसका इतना अच्छा खिलाड़ी हो गया था कि उसका प्रादेशिक स्तर पर चयन हो गया। वह जब मैदान में हाकी खेलता था तो ऐसा प्रतीत होता था जैसे गेंद उसके कहने पर चल रही हो। उसके टीम में रहने से ही उस टीम के विजेता होने के आसार बढ़ जाते थे। एक बार मैदान में मैच खेलने के दौरान दूसरे खिलाड़ी की गलती से पैर फँस जाने से राजीव गिर गया और उसकी पैर की हड्डी टूट गयी जिस कारण उसे तीन माह प्लास्टर बंधा होने के कारण वह हाकी खेलने से वंचित रहा। चिकित्सकों ने उसके वापस हाकी खेलने पर संशय जाहिर किया था। उसने ठीक होने के उपरांत छः माह तक व्यायाम एवं मालिश के द्वारा अपने पैरों को मजबूत कर लिया और अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति के कारण वापिस धीरे धीरे हाकी खेल कर एक दिन पुनः पुराने मुकाम पर पहुंच गया।

एक दिन वह मैच खेलकर अपने घर जा रहा था तभी दुर्भाग्यवश एक ट्रक ने उसे टक्कर मारकर गंभीर रूप से घायल कर दिया। उसका छः माह तक इलाज चला और डाक्टरों ने उसे अब हाकी खेलने से मना कर दिया। वह कहता था कि हाकी मेरा जीवन है और मैं वापिस एक दिन खेलकर बताऊँगा। वह अस्पताल से छूटने के बाद एक से डेढ़ साल तक धीरे धीरे खेलने का अभ्यास करता रहा और एक दिन वापस मैच में भाग लेने के योग्य हो गया। सभी लोग उसके हाकी के प्रति प्रेम एवं समर्पण की तारीफ करते थे।

उसके सिर से दुर्भाग्य का साया अभी समाप्त नही हुआ था। एक दिन भूकंप आने के कारण उसकी चपेट में एक पाँच वर्षीय बच्ची की जान बचाने के लिये उसका हाथ बिल्डिंग से गिर रहे स्लेब के नीचे आ जाता है। चिकित्सकों को उसकी जान बचाने के लिये उसका हाथ काटना पड़ता है और वह अब हाकी खेलने से वंचित हो जाता है।

वह इससे हतोत्साहित नही होता है और कहता है कि प्रभु हमें जिस हालत में रखे उस हालत में रहकर समझौता करना ही पड़ता है। अस्पताल से आने के बाद वह एक खेल सामग्री की दुकान खोल लेता है एवं खाली समय में बच्चों को सहायकों के माध्यम से हाकी का प्रशिक्षण देना शुरू कर देता है।

४४- काली मदिरा

मीना भट्ट सेशन जज थीं। वर्तमान में सेवा निवृत्ति के बाद साहित्य सेवा में संलग्न हैं। उनके जीवन के उल्लेखनीय प्रकरणों में से एक प्रकरण ऐसा रहा जो समाज के निर्धन और मध्यम वर्ग में शराब के कारण बर्बाद हो रहे परिवारों और बढ़ते अपराधों का मर्म स्पर्शी उदाहरण है।

इस प्रकरण में छोटे भाई ने अपने सगे बड़े भाई की चाकू मारकर हत्या कर दी थी। उसने यह कृत्य अपने माँ-बाप के सामने किया था। वे इस घटना के चश्मदीद गवाह थे।

प्रकरण पढ़कर जज साहिबा भीतर तक सिहर गईं। वह कैसा क्षण रहा होगा जब एक माता-पिता के सामने उनका छोटा बेटा उनके बड़े बेटे की हत्या कर रहा होगा और वे असहाय से कुछ भी नहीं कर सके होंगे। जज साहिबा भी एक माँ थीं और माँ से भी पहले एक इन्सान थीं। उनकी आँखें सजल हो गईं। उनकी आँखों से आँसू की दो बूंदें कब टपक कर फाइल पर गिरीं उन्हें इसका भी होश नहीं रहा तभी अभियुक्त को सामने लाया गया।

पुलिस वालों ने एक 25-26 वर्ष के नौजवान को लाकर कटघरे में खड़ा कर दिया। गवाही प्रारम्भ हुई। प्रत्यक्ष दर्शी गवाह के रूप में अभियुक्त की माँ एवं पिता को बुलाया गया।

माँ का गला भरा हुआ था। वह जैसे अपनी पूरी ताकत लगाकर बोल रही थी पर उसका स्वर सामान्य ही था। उसने अभियुक्त की ओर इशारा करते हुए कहा कि वह उसका छोटा बेटा है। वह आवारा, जुआरी, शराबी और दुव्र्यसनी है। वह पैसो के लिये उससे और उसके पति के साथ मारपीट करता था। घटना के दिन भी वह शराब के लिये पैसों की मांग कर रहा था। उनके पास पैसे नहीं थे इसलिये वह उनके साथ दुर्व्यवहार कर रहा था। तभी वहाँ बड़ा बेटा आ गया। उसने इसका विरोध किया तो इसने चाकू मारकर उसकी हत्या कर दी। सब कुछ इतना अप्रत्याशित और अकल्पनीय था कि बड़ा भाई और माता-पिता कुछ भी नहीं कर सके और उनका बेटा भूमि पर गिरा तो फिर उठ नहीं सका। कलयुगी रावण ने राम का वध कर दिया। बोलते-बोलते वह कहती जा रही थी- अब हमारा खयाल कौन करेगा। हमारा खयाल रखने वाला तो चला गया। यह हत्यारा जेल से बाहर आएगा तो हमको भी चैन से नहीं रहने देगा। यह हमें भी मार डालेगा। उसकी आँखों से झर-झर आँसू टपक रहे थे।

इसके बाद बारी उसके पिता की थी। उसके पिता की हालत और उसका बयान भी वैसा ही था जैसा उसकी माँ का था।

सब कुछ आइने की तरह साफ था। बुरे काम का बुरा नतीजा होता है। यहाँ भी वही हुआ। भाई के उस हत्यारे को आजीवन कारावास दे दिया गया। नशे और क्रोध के कारण व्यक्ति का मानसिक संतुलन एवं सोचने की क्षमता शून्य हो जाती है उस वक्त वह आवेश में यह नही सोच पाता कि उचित और अनुचित क्या है ? यदि ऐसे क्षणों में हम अपने आवेश को कुछ काबू में रख सकें तो अनेकों आपराधिक घटनाओं से बचा जा सकता है।

प्रकरण समाप्त हो गया किन्तु यह प्रश्न अभी भी शेष है कि यह सामाजिक बर्बादी कब और कहाँ थमेगी और इसे कौन रोकेगा ?

45. माँ

डा. शिवा सिंह सुप्रसिद्ध होम्योपैथिक चिकित्सक हैं। वे करूणामयी एवं संवेदनशील हृदय की स्वामिनी हैं इसलिये अपने मरीजों के बीच भी अत्यन्त लोकप्रिय हैं। उनके जीवन की यह अविस्मरणीय घटना है जिसने उनके चिन्तन को एक नयी दृष्टि दी है।

संध्या होने वाली थी। वे बस से उतरकर बस स्टाप पर खड़ी हुई थी। घर जाने के लिये एक रिक्शेवाले को तय किया। बीस रूपये में तय हुआ। वह रिक्शे पर बैठ गई। अभी आधा रास्ता भी तय नहीं हो पाया था तभी वर्षा होने लगी। पानी तेज था। रिक्शेवाले ने रिक्शा रोका और एक प्लास्टिक की पन्नी से पूरे रिक्शे को ढक दिया ताकि सवारी पानी से सुरक्षित रहे। उस समय डा. शिवा ने ध्यान दिया कि रिक्शेवाला एक कमजोर और बुजुर्ग व्यक्ति है। उसने उसे तो बरसात से बचा लिया था किन्तु उसके पास स्वयं के लिये न तो बरसाती थी और न ही कोई कवर। वह उससे बात करने को बेचैन हो गई किन्तु बारिश की तेज आवाज में उससे बात करना संभव नहीं था।

घर पहुँचने पर शिवा ने उस रिक्षेवाले को घर के भीतर बरामदे में बुला लिया और एक पुराना तौलिया लाकर उसे दिया जिससे वह अपना शरीर सुखा सके। और उससे कहा- दादा ऐसी बारिश में तुम गीले होकर रिक्शा चला रहे हो ऐसे में तो तुम बीमार पड़ जाओगे। अपने लिये एक बरसाती तो रखा करो।

शिवा को उम्मीद नहीं कि थी कि वह ऐसा उत्तर देगा। वह बोला- मेडम मेरा कौन है जो चिन्ता करेगा। बीमार भी हो गया तो क्या?

क्यूं दादा?

वह चुप रहा।

शिवा ने फिर पूछा- दादा तुम्हारे परिवार में और कौन-कौन है?

कोई नहीं है मेडम। जिन्दगी के सताये हुए हैं।

यह कहते हुए उसकी आवाज बहुत धीमी हो गई थी। उसके स्वर में उसके जीवन का अकेलापन बहुत गहराई से झलक रहा था।

उसने फिर कहा- फिर भी कम से कम अपने लिये एक बरसाती तो ले ही लो।

मेडम रिक्शा चलाकर दोनों वक्त का खाना खा लें यही बहुत है। बरसाती कहाँ से आएगी?

शिवा ने अपने पर्स से निकाल कर उसे तीन सौ रूपये दिये और कहा- दादा इन पैसों से अपने लिये बरसाती ले लेना। इन पैसों से दारु मत पीना, बरसाती के लिये दिये हैं तो बरसाती ही लेना।

वह अवाक होकर उसकी ओर देखने लगा। कुछ ठहरकर उसने पैसे ले लिये। उसकी आँखों में आँसू थे जो उसके गीले चेहरे पर भी बहते हुए साफ दिख रहे थे। वह स्वयं से कह रहा था- माँ...... तुम मेरी माँ हो... वह बोझिल कदमों से चलता हुआ रिक्षा लेकर आगे बढ़ गया।

उस समय तो शिवा नहीं समझ सकी कि उसने ऐसा क्यों कहा? किन्तु कुछ समय बाद उसे समझ में आया कि वह मुझे माँ कहकर बतला गया कि निस्वार्थ प्रेम सिर्फ माँ ही कर सकती है। बिना किसी उम्मीद के सिर्फ देना और देते रहना वह माँ है।

46. विनम्रता

एक शिक्षक से विद्यार्थी ने प्रश्न किया कि जब तेज आंधी तूफान एवं नदियों में बाढ़ आती है तो मजबूत से मजबूत वृक्ष गिर जाते हैं परंतु इतनी विपरीत एवं संकटपूर्ण परिस्थितियों में भी तिनके को कोई नुकसान नही पहुँचता, जबकि वह बहुत नाजुक एवं कमजोर होता है। शिक्षक महोदय ने उससे कहा कि जो अड़ियल होते हैं और झुकना नही जानते हैं वे विपरीत परिस्थितियों में टूट कर नष्ट हो जाते हैं। तिनके में विनम्रता पूर्वक झुकने का गुण होता है इसी कारण वह अपने आप को बचा लेता है। हमें भी अपने जीवन में विपरीत परिस्थितियाँ आने पर विनम्रतापूर्वक झुककर उचित समय का इंतजार करना चाहिये।

47. संघर्ष

एक मुर्गी के अंडों से चूजें बाहर आने के लिये संघर्ष कर रहे थे। वहाँ पर एक दस वर्षीय बालक मोहन उन अंडों की तरफ देखकर सोच रहा था कि यदि मैं इन अंडों को तोड़ दूँ तो उसमें से चूजों का बाहर आने का रास्ता सुलभ हो जाएगा और वे आसानी से बाहर आ जाएंगे। उसने उन अंडों को तोड़ दिया और चूजे बाहर आ गये परंतु वह यह देखकर आश्चर्यचकित हो गया कि वे सभी चूजे पैरों से कमजोर थे और अन्य चूजों की तुलना में उनकी चलने की गति भी कम थी। मोहन ने अपने दादाजी के पास जाकर उन्हें पूरी जानकारी दी और उनसे पूछा कि मैंने तो चूजों की मदद के लिये यह काम किया था परंतु चूजे इतने कमजोर क्यों हो गये हैं। उसके दादाजी ने उसे समझाया कि चूजे जब अंडे के अंदर रहते हैं और जब वे संघर्ष करके अंडे के खोल को तोडकर बाहर आते हैं इस दौरान उनके पैरों को काफी परिश्रम करना पडता है जिससे वे स्वयं ही मजबूत हो जाते हैं तुम्हारे इस कृत्य के कारण उनके पैर कमजोर रह गये हैं। यही कारण है कि तुम्हे दूसरे चूजों की तुलना में अंतर महसूस हो रहा हैं। यह बताते हुए दादाजी ने कहा कि जीवन एक संघर्ष है और यही विकास की आधारशिला है यह वास्तविकता है कि कोई भी उपलब्धि संघर्ष एवं मेहनत के बिना नही मिल सकती है।

48. दूरदृष्टि

रावण एक बुद्धिमान, ज्ञानवान, वेद पुराण का ज्ञाता तथा कुशल प्रशासक था। वह युद्ध में राम से पराजित होकर अपनी मृत्यु की प्रतीक्षा कर रहा था। उसकी यह दशा देखकर विभीषण उनसे मिलने जाते हैं।

रावण उन्हें देखते ही कहता है कि मेरी मृत्यु का कारण तुम ही हो। राम को मेरी मृत्यु के भेद की जानकारी तुमने दी थी अतः तुमने विश्वाससघात किया है एवं तुम देशद्रोह के अपराधी हो तुम राजगद्दी पाकर लंकाधिपति कहलाओगे परंतु तुम्हें हर ओर लाशो की सडांध नारियों का आर्तनाद, रोती सिसकती महादुर्गती एवं युद्ध की विभीषिका में बर्बाद हो गयी लंका मिलेगी।

राम सुख, समृद्धि और वैभव से परिपूर्ण अयोध्या की राजगद्दी पर बैठेंगे। तुम अपने आप को नीतिवान, ईमानदार और धर्म के प्रति समर्पित व्यक्तित्व के धनी मान सकते हो परंतु इतिहास में तुम घर का भेदी लंका ढाए के रूप में ही जाने जाओगे।

राम अमर होकर घर घर में पूजे जायेंगे और उनके मंदिर बनेंगे। तुम्हारा ना ही कोई मंदिर बनेगा और ना ही तुम्हें यथोचित मान सम्मान प्राप्त होगा। यह जीवन का यर्थाथ और मेरी भविष्य दृष्टि है कि भ्रातद्रोह का परिणाम एवं देशद्रोह की परिणिति ऐसी ही होती है।

इसके बाद राम के कहने पर लक्ष्मण जी रावण से ज्ञान प्राप्त करने हेतु उनके पास पहुँचते हैं उन्हें देखकर वह उनसे कहता है कि लक्ष्मण जीवन में जो अपने आप को सर्वशक्तिमान समझकर अपने बल पर घमंड करने लगता है एवं मदांध होकर धर्मपथ को भूल जाता है उसका अंत मेरे समान ही होता है।

49. शौर्य दिवस

शहर की एक शासकीय षाला में कारगिल युद्ध में हुई हमारी जीत के उपलक्ष्य में विद्यार्थियों के बीच शौर्य दिवस मनाया जा रहा था जिसमें उन्हें हमारी सेना की गतिविधियों, देश के प्रति उनका समर्पण व त्याग एवं कुर्बानी से अवगत कराया जा रहा था। शाला की कक्षा सातवीं में अध्ययनरत् एक विद्यार्थी राम ने अपने शिक्षक से पूछा कि सर मैंने चीन में क्रांति के विषय में मेरे पिताजी से माआत्से तुंग के बारे में सुना है कि उनकी नीति थी कि दुश्मन को पूरी तरह से समाप्त कर देना चाहिये। यदि उसे छोड़ दिया जाता है तो वह वापस शक्ति संचय करके आपको हराने के लिये तत्पर रहेगा। उन्होने इसका उदाहरण देते हुये लिखा है कि तत्कालीन प्रशासक चांग काई शेक जो कि उस समय बहुत मजबूत एवं साम्यवाद का घोर विरोधी था, उसने माओ को घेरकर उसके एक लाख सैनिकों में से नब्बे हजार को खत्म कर दिया था। माओ को अपने बचे हुये सैनिकों के साथ भागकर एक पहाडी की तलहटी में छिपकर किसी प्रकार अपनी जान बचानी पड़ी। चांग काई शेक यह सोचकर की उसने क्रांति को दबा दिया है, उसने अपना ध्यान माओ से हटाकर दूसरे अन्य महत्वपूर्ण कार्यों की ओर लगा दिया। माओ चुपचाप अपनी शक्ति में इजाफा करता गया और एक दिन उसने अपने सीमित संसाधनों, दृढ़ निश्चय एवं पराक्रम से चीन में तख्ता पलट करके सत्ता हथिया ली।

हमारी सेना ने कई बार पाकिस्तान को युद्ध में मुँहतोड़ जवाब दिया है और कारगिल भी उसी का एक उदाहरण है। हम इस समस्या का पूर्णतया निदान क्यों नही कर पा रहे हैं। यह सुनकर शिक्षक महोदय ने गंभीरता पूर्वक उसे समझाया कि हमारे देश में लोकतांत्रिक सरकार है जिसमें जनता ने अपने प्रतिनिधियों को चुनकर निर्णय लेने का अधिकार प्रदान किया है। चीन में तानाशाही है और निर्णय लेने में सेनापति का भी हस्तक्षेप महत्वपूर्ण रहता है इसलिये वे कठोर निर्णय भी लेने में सक्षम है। हमारे देश में इस प्रकार के महत्वपूर्ण सामरिक निर्णय प्रधानमंत्री एवं उनका मंत्रिमंडल लेता है जिसमें सेना का सीधा कोई हस्तक्षेप नही रहता है परंतु इसमें तीनों सेनाओं के अध्यक्ष राष्ट्रपति की सहमति अनिवार्य रहती है। हमें अपनी सरकार पर भरोसा रखना चाहिये कि वे जो भी निर्णय लेते हैं वे देशहित को सर्वोपरि रखते हुये ही लिये जाते हैं।

50. नवजीवन

हमारे जीवन में कभी कभी ऐसी घटनायें घटित होती हैं जो दुखदायी होते हुये भी हमारी अंतरात्मा की चेतना को जाग्रत कर हमारे जीवन की धारा को बदल देती हैं। ऐसा ही एक वृतांत मुझे मेरे मित्र रामसिंह ने उसके जवानी के दिनों में घटित सच्ची घटना को बताकर मुझे चिंतन के लिये मजबूर कर दिया था।

उसने बताया कि यह बात आज से बीस वर्ष पुरानी है। मैं एक कंपनी में उच्च पद पर कार्यरत था और अपनी पत्नी एवं पुत्र के साथ सुखमय जीवन बिता रहा था। एक दिन मेरा एक मित्र कार्यालय से निकलने के बाद मेरे ना करने पर भी मुझे एक बार में ले गया। वहाँ पर सब नृत्य के साथ साथ मदिरापान का भी आनंद ले रहे थे और आर्कषक बार बालाएँ अपने नृत्य एवं भाव भंगिमाओं से आगंतुकों का मन मोह रही थी। इन्ही में कुसुम नाम की एक बाला मेरे समीप आकर बैठ गई। उसके आर्कषक व्यक्तित्व एवं मीठी वाणी ने मुझे सहज ही अपनी ओर प्रभावित कर लिया। अब मैं प्रतिदिन उससे मिलने के लिये बार में जाने लगा और दोनों हाथों से उसके ऊपर रूपये लुटाने लगा। इसका नतीजा घर में धन की कमी से आपसी कलह होना प्रारंभ हो गई। एक दिन पत्नी को सारी बातों के पता चलने पर वह मुझे छोडकर, पुत्र के साथ मायके चली गई।

अब मैं और भी ज्यादा स्वछंद हो गया था और दिन रात शराब के नशे में डूबकर कुसुम के साथ समय बिताने लगा एक दिन धन के अभाव के कारण उसके द्वारा चाहे गये उपहार को नही दे पाया तो उसने अपना असली रूप दिखाते हुये मुझसे कहा अब तुम यहाँ पर आने और मेरे से बात करने के काबिल नही रहे यहाँ पर सम्मान उसी का होता है जो धनवान होता है धन विहीन एवं भिखारियों के लिये यहाँ कोई जगह नही है। तुम क्या थे इससे मुझे कोई मतलब नही है तुम आज क्या हो मैं इसी को महत्व देती हूँ अब तुम मेरे पास से रफा दफा हो जाओ और आगे से यहाँ आने या मेरे से मिलने की जुर्रत कभी मत करना। इन शब्दों को सुनकर मुझे गहरा आघात लगा और अत्यंत आंतरिक वेदना के साथ वहाँ से बाहर चला गया। मुझे नौकरी से हटा दिया गया था पत्नी के अभाव और वक्त के थपेडों ने मुझे आंतरिक रूप से तोडकर निराश कर दिया था।

मुझे अब अपनी पत्नी का मेरे प्रति प्रेम और त्याग की अनुभूति का स्मरण होने लगा था। मैंने परमात्मा से हृदय से अपनी गलतियों के लिये माफी माँगी और प्रार्थना की कि मेरी पत्नी मुझे माफ कर दे और मुझे एक मौका जीवन में सुधरने का दे दें। इसी उहापोह में मैं अपने ससुराल जाकर पत्नी को वापिस लाने के लिये अनुरोध करने लगा। मेरे बहुत समझाने के बाद वह यह सोचकर कि जीवन में गलती किससे नही होती, उसने माफ कर दिया और मेरे साथ वापस अपने घर आ गई। गृहलक्ष्मी के घर आते ही मानो मुझमें नई ऊर्जा का संचार हो गया और प्रभु कृपा से एक बडी कंपनी में पुनः कार्यरत हो गया। मैं अब जीवन में हर कदम संभल संभलकर रखने लगा और धीरे धीरे कठिन परिश्रम, पक्का इरादा एवं सकारात्मक सोच से पुनः सुखमय जीवन व्यतीत कर रहा हूँ।

वह मेरी ओर देखकर बोला कि यह वृतांत मैंने तुम्हें इसलिये बताया है कि प्रभु कृपा से तुम अपनी कड़ी मेहनत एवं परिश्रम से धन उपार्जन कर रहे हो। मुझे शंका है कि कहीं तुम इस प्रकार के प्रपंचों में उलझ ना जाओ इसलिये मैं तुम्हें इनके परिणामों के प्रति आगाह करा रहा हूँ। मेरी बातों को अन्यथा मत लेना तुम्हारा सच्चा मित्र एवं हितैषी होने के कारण इतनी बातें कहने की हिम्मत जुटा सका।

51. प्रेरणा

एक नेत्रहीन विद्यार्थियों के विद्यालय में उनके वार्षिक दिवस के अवसर पर प्रधानाध्यापक महोदय ने अपने उद्बोधन में कहा कि नेत्रहीन व्यक्ति भी जीवन में उन्नति के शिखर पर पहुँच कर महान बन सकता है। हमें नेत्रहीन होने के कारण अपने मन में हीन भावना से ग्रसित नही होना चाहिये। संत सूरदास जी उदाहरण देते हुये वे बोले कि उनका जन्म एक गरीब परिवार में हुआ था। उनके नेत्रहीन होने के कारण बचपन से ही वे उपेक्षित थे। जब वे युवा हुये तो वे काव्य और संगीत शास्त्र का अध्ययन और अभ्यास करने लगे। वे भगवद् भक्त थे एवं श्री नाथ जी के प्रति उनकी अपूर्व भक्ति एवं समर्पण था और उन्होने उन्ही को केंद्रबिंदु रखते हुये अद्भुत रचनाएं अपने जीवनकाल में लिखी थी तथा उनके द्वारा लिखित सूरसागर आज भी एक प्रसिद्ध ग्रंथ हैं जिसकी गिनती विश्वप्रसिद्ध ग्रंथों में होती है।

एक बार बादशाह अकबर के सामने संगीत सम्राट तानसेन सूरदास का पद गा रहे थे जिसे सुनकर बादशाह मुग्ध हो गये। वे सूरदास जी से मिलने तानसेन के साथ गये और तानसेन जी ने उनसे अनुरोध किया कि वे बादशाह की प्रषंसा में एक पद का गायन करने की कृपा करें। सूरदास जी ने विनम्रतापूर्वक कहा कि उनके पद परमपिता परमेश्वर को ही समर्पित है उनके मुख से इसके अतिरिक्त और किसी प्रकार का गायन नही निकल सकता है। सूरदास जी त्यागी, विरक्त और प्रेमी भक्त थे। उनकी यह मानसिकता एवं स्पष्टवादिता से सम्राट अकबर बहुत प्रभावित हुये एवं उनके प्रति सम्मान व्यक्त करते हुये वापस चले गये।

सूरदास जी ने यह सिद्ध कर दिया था कि महान बनने के लिये आपको आँखों की दृष्टि की जरूरत नही पड़ती आपको अपने आप को एक लक्ष्य पर केंद्रित करना चाहिये, यही सफलता की आधारशिला बनकर आपको उन्नति के शिखर पर ले जाती है।

52. ईमानदारी

एक रविवार को मैं और मेरा एक मित्र भोजन करने एक रेस्तरां में गए। जैसे ही हम कार से उतरे, एक व्यक्ति जिसके पैरों में कुछ तकलीफ थी, लंगड़ाता हुआ सा हमारे पास आया और बोला- बाबूजी सुबह से भूखा हूँ मुझे खाना खिला दीजिए, भगवान आपका भला करेगा। मैंने उसे पर्स से एक नोट निकालकर देते हुए कहा- ये पचास रुपये लो और किसी होटल में जाकर खाना खा लो। उसे नोट देकर मैं अपने मित्र के साथ रेस्तरां में चला गया।

वहां से डिनर लेकर जब हम लोग बाहर आये तो मैंने देखा कि वह व्यक्ति हमारी कार के पास खड़ा था। मैंने उससे पूछा- क्या बात है अब क्या चाहिए?

वह बोला- बाबूजी आपने मुझे पचास रुपये दिये थे लेकिन जब मैंने होटल में जाकर देखा तो यह पाँच सौ का नोट था। आपने पचास के धोखे में मुझे पाँच सौ का नोट दे दिया। आप इसे रख लें और मुझे पचास रुपये दे दें।

मैं अचंभित रह गया। मैंने उससे कहा कि अब ये रुपये तुम्हीं रख लो।

वह बोला- साहब आपकी अंतर आत्मा ने खुशी-खुशी मुझे पचास रुपये देने को कहा था। आप मुझे पचास रुपये ही दें। मैं भोजन करके संतुष्ट हो जाउंगा।

मैंने उससे वह नोट लेकर उसे पचास रुपये का नोट दिया जिसे लेकर वह धीरे-धीरे वहां से चला गया। उसके कृषकाय शरीर पर ईमानदारी की चमक देखकर मैं अभीभूत होकर उसे आँखों से ओझल होने तक देखता रहा।

53. चुनौती

श्री अभय तिवारी एक जाने-माने गीतकार हैं। उन्होंने पत्रकारिता भी की, वे एक शिक्षक, एक एन. सी. सी. अधिकारी और एक हायर सेकेण्डरी स्कूल के प्राचार्य के रूप में अपनी सेवाएं दे चुके हैं। निकट भविष्य में ही वे अपनी शैक्षणिक सेवाओं से सेवानिवृत्त होने जा रहे हैं। उनने अपने जीवन के प्रेरणादायी प्रसंग को रेखांकित करते हुए बतलाया कि-

वे जब बी. एस. सी. प्रथम वर्ष में अनुत्तीर्ण हुए तो यह न सिर्फ उनके लिये वरन् उनके परिवार और पूरे मोहल्ले के लिये एक दुर्घटना थी क्यों कि वे पढ़ने-लिखने के मामले में बहुतों से बहुत अच्छे थे। किसी को यह कल्पना नहीं थी कि वे अनुत्तीर्ण भी हो सकते हैं। परिणाम पता होने के बाद जब वे घर पहुँचे तो उन्होंने अपने पिता जी को अपने परीक्षा परिणाम से अवगत कराया। उन्होंने बतलाया कि वे अपनी हर बात पिता जी को यथावत बता दिया करते थे और उन्हें बताने के बाद फिर उन्हें किसी को भी कुछ बताने की आवश्यकता नहीं रहती थी। जब उन्होंने अपना परीक्षा परिणाम बतलाया तो पिताजी की प्रतिक्रिया को वे समझ ही नहीं सका। वे न तो प्रसन्न नजर आ रहे थे और न दुखी। जैसे उन्हें वह परिणाम पहले से ही मालूम हो।

शाम को जब वे घर से बाहर निकलने लगे तो माता जी ने उन्हें जेबखर्च के रुप में पैसे दिये जो समान्यतया दी जाने वाली रकम से अधिक थे। दो दिन ऐसे ही बीत गये घर में किसी ने भी उनके परीक्षा परिणाम पर कोई टीका-टिप्पणी नहीं की।

तीसरे दिन सुबह के समय आंगन में उनके पिताजी हाथ मटिया रहे थे और वे उनके हाथों पर पानी डाल रहे थे। हाथ धोकर पिता जी उठे और कहने लगे- ’’ मुन्ना! ( उनका घरेलू नाम ) एवरी डिफीट आफ लाइफ इज़ अ चेलेन्ज, जीवन की हर हार चुनौती देकर कहती आगे बढ़ जा। यदि हम कहीं पराजित हुए हैं तो हमें अपनी पराजय को चुनौती के रुप में स्वीकार करना चाहिए। अपनी कमियों को दूर करके पुनः पहले से भी अधिक लगन और परिश्रम के साथ अपने लक्ष्य का संधान करने के लिये तत्पर हो जाना चाहिए।’’ इतना कहकर वे आगे बढ़ गये। उनके वे शब्द आज भी मेरे जीवन का संबल हैं। जब भी कहीं पराजय होती है उनके वे शब्द ईमानदारी और मेहनत के साथ आगे बढ़ने की प्रेरणा देते हैं।

54. जो सुमिरै हनुमत बलवीरा

सुरेन्द्र अग्रवाल जो कि व्यवसायी, लेखक एवं कवि हैं ने अपने जीवन में घटित सत्य घटना के विषय में बताया। यह बात उन दिनों की है जब वे अपने व्यापारिक कार्य से बिहार के धनबाद इलाके में जाया करते थे। उन दिनों धनबाद ( वर्तमान में ) झारखंड का नाम सुनते ही लोगों के रोंगटें खडे हो जाते थे क्योंकि वहाँ माफिया एवं बाहुबलियों का साम्राज्य हुआ करता था और शाम को 7 बजे के पहले ही वहाँ लोग अपने अपने घरों में कैद हो जाया करते थे। सड़कें सुनसान होकर सन्नाटा पसर जाता था। किसी की भी हत्या और लूटपाट बड़ी आम बात थी।

धनबाद शहर से 8 कि.मी. की दूरी पर उपनगरीय क्षेत्र करकेंद्र है जहाँ उनके रिश्ते के भाई सुरेश अग्रवाल रहा करते थे जिनके यहाँ वे ठहरते थे। इस करकेंद्र से 8 कि.मी. की दूरी पर कोयले के लिये प्रसिद्ध स्थान झारिया है जहाँ धरती के नीचे वर्षों से कोयले में आग लगी हुई है और झारिया से लगा हुआ भागा स्टेशन है जहाँ से हमेशा वे ट्रेन पकड़कर इलाहाबाद होते हुए जबलपुर वापस आते थे। भागा स्टेशन से ट्रेन रात में 9 बजे मिलती थी और सुरेश उन्हें स्कूटर से छोड़ने आता था।

एक बार ठंड के दिनों की बात है रात करीब 7:30 बजे वे और सुरेश करकेंद्र से भागा स्टेशन के लिए स्कूटर से रवाना हुए रास्ते में एक इलाका पड़ता है जिसे शिमला बहाल के नाम से जाना जाता है। यह इलाका करकेंद्र से करीब 2 कि.मी. की दूरी पर है। उस सुनसान इलाके में किसी प्रकार की मदद तो दूर उलटा लुट पिट जाने का डर रहता था। ऐसे में उनकी स्कूटर खराब होकर उसके पिछले पहिए से खट खट की आवाज आने लगी, उन्हें रूकना पड़ा और पुनः प्रयास करने पर भी खटखट की आवाज और तेज हो गयी। उनकी स्थिति ऐसी हो गई कि उन दोनो के चेहरे पर हवाईयां उड़ने लगी कि अब क्या होगा। वे आगे भी नही जा सकते थे और पीछे भी नही आ सकते थे और उस इलाके में कोई अन्य साधन या मदद उपलब्ध ना होकर उलटा लुट जाने का खतरा था।

सुरेश घबरा गया कि अब क्या करें ऐसे में सुरेंद्र को बस संकट मोचन हनुमानजी का ध्यान आया। उसने सुरेश से पूरे आत्मविश्वास से कहा कि चलो एक बार फिर से प्रयास करते है तुम गाड़ी स्टार्ट करो इसके बाद वह सामान के साथ पीछे बैठा। गाड़ी खटखट आवाज के साथ चलना शुरू हो गयी और सुरेंद्र ने पीछे बैठकर जोर जोर से हनुमान चालीसा का पाठ शुरू किया। यह आश्चर्यजनक घटना थी कि हनुमान चालीसा का पाठ शुरू करते ही गाड़ी की खटखट बंद हो गई और वे सही सलामत झारिया तक पहुँच गये। वहाँ पहुच कर सबसे पहले उन लोगों ने मैकेनिक को स्कूटर दिखाई। स्कूटर का पिछला चका देखते ही मैकेनिक ने आश्चर्यचकित होकर पूछा कि यह गाडी यहाँ तक कैसे आयी है। इसके चके के नट बोल्ट तो खुले पडे है। वे मैकेनिक को क्या बताते की उन्हें हनुमान जी ने यहाँ तक सुरक्षित पहुँचाया है। उन लोगों ने मन ही मन हनुमान जी को प्रणाम कर धन्यवाद दिया। मैकेनिक ने नट बोल्ट कसकर स्कूटर ठीक किया और वे लोग भागा स्टेशन के लिए रवाना हो गये जो कि नजदीक ही था।

उस दिन उन्हें हनुमान जी की कृपा का एहसास हुआ और यह प्रेरणा मिली कि अपने भक्तों की जीवनरक्षा हेतु सच्चे दिल से प्रार्थना करने पर भगवान चले आते है। सत्य है कि:-

संकट कटै मिटे सब पीरा ।

जो सुमिरै हनुमत बलवीरा ।।

55. शांति की खोज

प्रेरणा वह शक्ति है जो व्यक्तित्व में सकारात्मक परिवर्तन लाती है। प्रेरित होकर व्यक्ति असंभव कार्य को भी संभव कर सकता है, ये विचार व्यक्त करते हुए दर्शन शास्त्र की पूर्व विभागाध्यक्ष महिला आयोग की सदस्य एवं अनेको धर्मार्थ ट्रस्टों के माध्यम से समाज सेवा हेतु समर्पित व्यक्तित्व की धनी डा. सोनल अमीन ने बताया कि वे ब्रम्हाकुमारी आश्रम के व्यक्तित्व, कृतित्व एवं ज्ञान के सिद्धांतों से बहुत प्रभावित है।

उन्होने बताया कि उनके पिता राजर्षि परमानंद भाई पटेल के स्वर्गवास के पश्चात उनके परिवार में संपत्ति विवाद के कारण पारिवारिक संबंध आपस में बहुत कटु हो गये थे। उनके लिए यह सब स्वीकार करना बहुत मुश्किल था। इन परिस्थितियों को स्वीकार करने में कर्मफल सिद्धांत से बहुत मदद मिली। जीवन में इस सिद्धांत से जो हमारे साथ घटित होता है हमारे ही किये हुए कर्मों का परिणाम है, कर्म पिछले जन्मों के भी हो सकते हैं। जीवन में कर्मों के अनुसार उतार चढ़ाव आते हैं जिनका सामना हमें करना होता है। यह ज्ञान घावों पर मरहम लगाकर हमें संघर्ष की शक्ति देता है एवं कठिन परिस्थितियों पर भी स्वस्थिति को मजबूत कर विजय पाई जा सकती है।

यह ज्ञान मात्र सैद्धांतिक या कोरा दर्शन शास्त्र नही, यह पूर्ण व्यवहारिक है। इसे जीवन में लागू करने से निश्चित परिवर्तन आता है और हम शांति और सुख की दिशा में अग्रसर होते है। परमात्मा हमें सिर्फ ज्ञान ही नही देता बल्कि ज्ञान को आत्मसात करने की शक्ति भी देता है। ब्रम्हकुमारी आश्रम से प्राप्त ज्ञान उनके जीवन का प्रेरणास्त्रोत है जिससे उन्हे सबको माफ कर कठिनाईयों का सामना करते हुए शुभकामना देकर आगे बढ़ने की प्रेरणा मिलती है। डा. अमीन का कहना है कि आध्यात्मिक संस्थानों के सद्उद्देश्यो का जीवन में बहुत महत्व होता है यदि व्यक्ति उन उपदेशो के मूल में निहित अमृत तत्व को समझकर आगे बढ़े तो उसे कभी हताशा, निराशा एवं असफलता नही मिलती हैं।

56. माफी

दैनिक समाचार पत्र ‘पत्रिका’ से संबंद्ध वरिष्ठ पत्रकार प्रेमशंकर तिवारी ने हमें वर्तमान समय के परिप्रेक्ष्य में एक बहुत ही प्रेरणादायक घटना बताई। उन्होंने बताया कि जबलपुर जिले में सिहोरा के पास बरगंवा ( खिरवाँ ) नामक गांव में उनका जन्म हुआ। कक्षा पाँचवी के बाद उनकी शिक्षा जबलपुर शहर में हुई। अपने गांव की एक घटना की सीख उन्हें मरते दम तक याद रहेगी।

वे गर्मी की छुटिट्यों में अपने गांव गये हुए थे और एक दिन अपनी बखरी के बाहर दहलान में बैठे थे तभी गांव का एक वृद्ध स्वीपर उनके घर पर आया। उसने बड़ी विनम्रता के साथ उनके पिताजी को प्रणाम किया और नीचे बैठ गया। अब दोनो के बीच बातचीत का दौर शुरू हो गया तभी अनायास ही उनके मुँह से निकला कि पिताजी क्या ये जमादार है ? इतने शब्द उनके मुँह से निकले ही थे कि पिताजी तमतमाकर उठे और उनका कान पकड़कर खरीखोटी सुनानी शुरू कर दी। वे जोर से डाँटते हुए कह रहे थे कि तुम शहर में क्या यही पढ़ते हो ? क्या वहाँ अपने से बड़ो से बातचीत करने या उन्हें संबोधित करने की तमीज नही सिखायी जाती है ? तुम्हें मालूम है वह कौन है, बड़ों को इसी तरह संबोधित करते हैं ? मैं उन्हे काका कह रहा हूँ और तुम उन्हें जमादार कह रहे हो ? यह सुनकर वे थरथर काँपने लगे।

उस समय उनकी उम्र कम थी और वे समझ नही पाये कि गलती कहाँ हो गयी है ? जमादार लगातार पिताजी से अनुनय विनय कर रहा था कि पंडित जी छोडिए अभी वह बच्चा है लेकिन पिताजी कुछ सुनने को तैयार नही थे, उन्होंने झटके से उनको पकड़ा और उन्हें सीधे दहलान के नीचे की तरफ उकडू बैठे हुए उन सज्ज्न के सामने अपराधी की तरह पेश कर दिया। उन्होंने डाँटते हुए कहा कि ये तेरे पिता के काका है तो तेरे क्या लगेंगे ? इतना भी नही समझते तो पढ़ाई लिखाई छोड़ दो। तुम इतना भी नही जानते कि रिश्ते में ये तेरे बब्बा हुए इनसे क्षमा माँगों। उन्होने दोनो हाथ जोड़कर वैसा ही किया और कहा कि बब्बा जी मुझे क्षमा कर दीजिए, मुझसे बड़ी गलती हो गई है अब दोबारा ऐसा कभी नही होगा। जमादार बब्बा ने मुस्कुराते हुए कहा कि अब तुम जाओ कोई बात नही है। पिताजी के कुछ शांत हुए भावों को देखकर सिसकते हुए दौड़कर घर के अंदर चला गया।

आज उस घटना को सोचता हूँ तो दिल भर आता है मन गांव की उस व्यवस्था की तरफ मुड़ जाता है। जहाँ छोटी सी आबादी में पूरी दुनिया बसती थी। सड़के कच्ची थी लेकिन रिश्ते मजबूत थे, घर खपरैल के थे, जीवन अभावों से भरा था लेकिन भावनाँए समृद्ध थी। आज की तरह आधुनिक संसाधन नही थे लेकिन मन में अपनेपन की मिठास थी। सभी के लिए समय था और हर एक के साथ रिश्ता तय था। उन रिश्तो में वो सुगंध थी जो आज खून के रिश्तो मे भी नही रही। सत्ता के खिलाड़ी चैपाल बिछाए बैठे हैं। उनके लिए ये सब बिरादरियाँ महज मोहरे है इनमें कब और कैसे अपना हित साधना है, ये बेहतर जानते है और हम मोहरे के समान उनके शह और मात के खेल का हिस्सा बन गये हैं। अब सबकुछ तहस नहस हो गया है इन्ही रिश्तो में तो मेरा भारत बसता था जो शायद अब कहीं खो गया है।

57. कल्लू

डाक्टर श्रीमती प्रार्थना अर्गल मृदुभाषी, सौम्य स्वभाव की, प्रखर व्यक्तित्व की महिला हैं। उनके जीवन में एक घटना ने बड़ा गंभीर प्रभाव डाला। उन्होंने बताया कि कल्लू नामक एक 15 वर्षीय लड़का उनके निवास स्थान से कुछ दूरी पर रहता था। उसकी माँ की मृत्यु बचपन में ही हो गयी थी और पिता की पिछले वर्ष ही रेल्वे की नौकरी करते हुए हृदयाघात से निधन हो गया था। कल्लू के चाचा ने उसके पिता का सब ग्रेच्युटी और पेंशन का रूपया हड़प लिया और उसे मारपीट कर घर से भगा दिया।

वह अपनी बुआ के साथ रहता था और बहुत ही कठिन परिस्थितियों में जीवन यापन कर रहा था। वह स्वभाव से सीधा सादा, पढ़ाई में बहुत होषियार, खेलकूद में रूचि रखते हुए अपनी कक्षा का होनहार छात्र था। उसकी बुआ को उससे बहुत आशाएँ थी कि 18 वर्ष की आयु होने पर उसे स्वर्गीय पिता के स्थान पर अनुकंपा नियुक्ति मिल जाएगी। कल्लू प्रतिदिन शाम के समय श्रीमती अर्गल के पोते पोतियो के साथ खेलने के लिए उनके घर आता था। उनका परिवार भी बची हुयी रोटी और साग सब्जी उसे दे देते थे। जिसे वह चाव से खाकर प्रसन्न हो जाता था। उसके मोहल्ले में भी रहने वाले लोग बासी खाना उसे दे देते थे जिसे वह और उसकी बुआ खाकर अपना जीवन यापन कर रहे थे।

एक दिन अर्धरात्रि के समय उसकी बुआ बदहवास अवस्था में उनके घर पर आयी और बोली की कल्लू को रातभर से उल्टी और दस्त हो रहे है। मैंने उसे देशी दवाँए आदि दे दी हैं परंतु उसका कोई प्रभाव नही हुआ है वह बेहोश हो गया है। यह सुनते ही वे बिना समय गंवाएँ अपनी कार निकालकर बुआ को साथ लेकर उसके घर गयी और तुरंत ही कल्लू को निकट के अस्पताल मे भर्ती करा दिया। वहाँ पर चिकित्सकों के अथक प्रयास के बाद भी कल्लू को नही बचाया जा सका।

उसकी मृत्यु ने श्रीमती अर्गल के मन झकझोर दिया क्योंकि कल्लू की मृत्यु का कारण बासी खाना था जिससे उसे संक्रमण हो गया था। उस दिन के बाद से उन्होंने अपने घर के बचे हुए बासी खाने को किसी को देने के बजाए विनिष्टीकरण करना प्रारंभ कर दिया।

58. पागल कौन ?

प्रसिद्ध योगाचार्य देवेन्द्र सिंह राठौर जिन्होने योग की शिक्षा बिहार योग विद्यालय, मुंगेर से ली है। एक दिन उन्होने मुझे बताया कि जीवन की कुछ घटनाएँ हमारे मन और मस्त्ष्कि पर गहरा प्रभाव छोड़ जाती है कि हम जीवन पर्यंत उसे भूल नही पाते हैं। ऐसी ही एक घटना उनके जीवन में जब वे 12 वीं कक्षा में अध्ययनरत थे तब हुई थी। वे सपरिवार शहर की एक अच्छी, संभ्रांत एवं पूर्ण रूप से विकसित कालोनी में निवास करते है। एक दिन ना जाने कहाँ से एक पागल व्यक्ति पूर्णतः नग्न अवस्था मे कालोनी में घूम रहा था, यह देखकर कि इसकी हरकतें शर्मनाक माहौल बना देगी वे एक डंडा लेकर उसे मारने के लिए घर से जा रहे थे तभी दरवाजे पर उनके पिताजी ने पूछा कि तुम इतने रोष में कहाँ जा रहे हो, क्यों जा रहे हो और तुम्हारे हाथ में डंडा क्यों हैं ?

उन्होने वस्तुस्थिति से अवगत कराया तो यह सुनकर उनके पिताजी ने कहा कि तुम पढ़े लिखे समझदार लड़के हो तुम्हें मालूम है कि वह पागल एवं मानसिक विक्षिप्त है उसे इस बात का कोई ध्यान नही है कि उसके शरीर पर कपडे हैं या नही। यदि तुम जाकर उस पर प्रहार करोगे तो उसकी चोट खाकर वह किसी कोने में दुबक कर दर्द और पीड़ा से कराहने लगेगा। अब तुम्ही बताओ ऐसा कृत्य करने से तुम पागल कहलाओगे या वह ? पिताजी की बात ने उन्हें मानसिक चिंतन पर मजबूर कर दिया कि यदि उन्होने जाकर डंडे से उस पागल की पिटाई कर दी होती तो वह खून में सना हुआ दर्द से बिलखता हुआ किसी और मोहल्ले में चला जाता वहाँ भी सब उसे पागल कहकर उसको बाहर दौड़ाते ।

उनका मन परिवर्तित हो गया था अब वे उस पर प्रहार ना करके उसके प्रति दयावान हो गये थे उन्हें लगा कि वह बेचारा भूखा प्यासा होगा, यह ध्यान में आते ही वे घर से खाना ले जाकर उसे खिला देते हैं एवं अपने मित्रों की मदद से उसे वस्त्र भी पहनाकर सहानुभूतिपूर्वक कालोनी से बाहर कर देते है। उसके चले जाने के बाद वे असीम शांति एवं संतुष्टि महसूस कर रहे थे। पिताजी के रोकने से वे एक गलत कार्य करने से बच गये और अब कभी भी जीवन में कोई कार्य करते हैं तो उसके परिणाम को बहुत सोचने समझने के बाद ही उस दिशा में आगे बढ़ते है।

59. आध्यात्म दर्पण

पंडित ओमप्रकाश शर्मा जीवन में प्रेरणा को आध्यात्मिक दर्शन के रूप मानते हैं। वे कहते हैं कि व्यक्ति के जीवन जीने में सदाचार एवं विकार की भावनाएँ समय समय पर आती और जाती रहती है। सदाचारी व्यक्ति सकारात्मक सृजन करते हुए समाज को एक प्रेरणा देकर प्रेरणा स्त्रोत बनता है परंतु विकार ग्रस्त मानव नकारात्मक सोच रखकर पतन की ओर गिरता जाता है। उसका जीवन मृत्यु के समान रहता है। उसे प्रेरणादायक अनुभूति कभी नही होती। हमें दृढ़संकल्पित होना चाहिए कि हमारा जीवन विकारग्रस्त ना हो तभी हमारा जीवन प्रेरणास्पद होगा और उसका अनुकरण करके समाज लाभांवित होगा। हम अपना जीवन किस दिषा में मोड़ना चाहते हैं इसके लिए हम स्वयं उत्तरदायी हैं। ईश्वर के प्रति भक्ति एवं विश्वास, सही दिशा व राह का ज्ञान कराता हैं।

पंडित शर्मा जी कहते हैं कि योग एवं आध्यात्म एक ऐसी साधना है जो कि हमारे विचारों को सकारात्मक दिशा प्रदान करके मन को दृढ़ संकल्पित करती हैं। इससे जीवन सहज, सरल और सुखमय हो जाता है। इससे आनंद की अनुभूति की प्रेरणा स्वमेव ही हमारे मन और मस्तिष्क में धीरे धीरे होने लगती है जिससे हमें जीवन में शांति और संतुष्टि की प्राप्ति होकर जीवन की सार्थकता का अनुभव होता है। व्यक्ति को अपने जीवन में धर्म, कर्म, सत्संग का साथ नही छोड़ना चाहिए। परमात्मा पर सच्ची आस्था से व्यक्ति के जीवन में परिवर्तन संभव है पर आस्था पाखंडी ना होकर वास्तविक होना जरूरी है।

60. नारी शक्ति

श्रीमती रचना खरे अखिल भारतीय स्तर पर उत्कृष्ट महिला व्यवसायी के प्रियदर्शिनी अवार्ड से अलंकृत एक सफल महिला उद्यमी है। इन्होंने अपनी मेहनत, कठिन परिश्रम एवं सोच से खनिज आधारित उद्योग का निर्माण कर उसका सफलतापूर्वक संचालन कर रही है। वे एम.बी.ए. की शिक्षा प्राप्त है और अपनी प्रेरणा अपने पति मानते हुए कहती है कि उनकी सफलता का कारण गहन परिश्रम, लगन व सूझबूझ रही है। उनका यह मत है कि वर्तमान सामाजिक परिस्थितियों में नारी को स्वावलंबी और आर्थिक रूप से सुदृढ़ होना समय की महती आवश्यकता है। नारी में वह अद्भुत शक्ति होती है कि यदि उसे सही वक्त पर सही दिशा की प्रेरणा मिल जाए तो वह कुशल गृहिणी, अच्छी बहू, पत्नी और माँ के साथ साथ वाणिज्य के क्षेत्र में भी अपार सफलता पाकर बहुमुखी प्रतिभा का प्रदर्शन कर सकती है।

वे उदाहरण देती हुयी कहती है कि हमें अपने पड़ोसी मुल्क चीन से सीख लेनी चाहिए कि वहाँ पर 90 प्रतिशत महिलाएँ कामकाज में व्यस्त रहती है। वे रेल्वे, हवाई सेवा, माल, रेस्टारेंट एवं बड़े बड़े बाजारों में कार्यरत है जिससे उनका राष्ट्र की जीडीपी में बहुत बड़ा योगदान है। हमारे देश में भी महिलाओं को भी समुचित सुरक्षा व प्रोत्साहन मिले तो भारतीय महिलाएँ भी कमजोर नही है। वे भी कठिन से कठिन कार्य को करने की क्षमता रखती है। श्रीमती खरे का कहना था कि यदि वे अपने काम के प्रति दृढ़ संकल्पित नही होती तो खनिज आधारित उद्योग में सफलता प्राप्त नही कर सकती थी। नारी के अंदर एक विशिष्ट शक्ति तत्व समाहित रहता है। यदि आप कमजोर है तो छोटे स्तर पर ही अपनी आंतरिक शक्ति का प्रयोग करके जीवन में सफल हो सकती है।

61. कर्तव्य

सुप्रसिद्ध समाचारपत्र देशबंधु के प्रबंध निर्देशक दीपक सुरजन ने अपने विचार इन शब्दों में व्यक्त किये कि जीवन में कोई भी व्यक्तित्व तभी सफल होता है जब उसके जीवन को सही वक्त पर सही दिशा देने वाले प्रेरक का मार्गदर्शन प्राप्त हो। हमारे जीवन में ऐसे व्यक्तित्व भी प्रेरणा देते है जो शून्य से शिखर तक पहुँचे है। आज से नही आदिकाल से ही मनुष्य जीवन में आदर्श चरित्रों महानायकों प्रेरक प्रसंगों का खासा महत्व रहा है। ये प्रेरणादाता, शिक्षक, मित्र, परिवार के सदस्य या कोई अन्य भी हो सकते है। वे अपने जीवन की सफलता की प्रेरणा का श्रेय अपने माता पिता को देते है। वे कहते हैं कि वे दोनो ही विकट जीवट एवं सूझबूझ के व्यक्तित्व के धनी थे।

वे अपनी आँखों देखी सत्य घटना जो कि 40 वर्ष पूर्व घटित हुयी थी, उनके मन और मस्तिष्क में आज भी जस की तस है। रायपुर के एक व्यस्ततम मार्ग में अचानक एक कार तेज गति से ट्रेफिक सिग्नल तोड़कर भागती हुयी निकली। ट्रेफिक हवलदार के बहुत रोकने पर भी वह भागती चली गयी, तब उसने अपनी स्कूटर से तेजी से उसका पीछा किया और कार ड्राइवर के तरफ वाली खिड़की से लटककर घिसटता हुआ चला गया। उसने आखिरकार कार को रोक ही लिया, यह सबकुछ ऐसा हुआ जैसे किसी फिल्म का दृश्य हो परंतु अपनी जान जोखिम में डालकर उस जाँबाज ट्रेफिक सिपाही ने कार चालक को सबक सिखाया और साथ ही वहाँ उपस्थित लोगों को भी प्रेरणा दी की कानून का पालन किया जाना चाहिए।

वे दूसरे प्रेरणा प्रसंग में अपनी बेटी कृति का उल्लेख करते हुए बताते हैं कि लगभग 22 साल पूर्व वे सपरिवार रायपुर से जबलपुर सड़क मार्ग से लौट रहे थे। अलसुबह मीठी नींद का वक्त था कि जब बरघाट ( बालाघाट ) के पास उनकी कार एक पेड़ से टकरा गयी। वे सभी घायल थे ऐसे में उन्होंने उसे एक परिचित के बारे में जानकारी दी और वह अकेले ही उनका घर ढूँढते हुये उनके पास पहुँची और उनको लेकर आयी। वे भी उसे उस घायल अवस्था में देखकर चैंक गये थे। कृति की त्वरित बुद्धि और साहस की वजह से उन्हें सिवनी जिला अस्पताल में भर्ती कराया गया उस समय कृति की उम्र सिर्फ 12 साल की थी।

पुराने समय में संयुक्त परिवार का चलन था परंतु अब एकल परिवार का चलन आ गया है। संयुक्त परिवार में घर का मुखिया समय समय पर प्रेरणा देने की मिसाल कायम करते थे। वे शांति और सद्भाव से रहने के प्रेरणास्त्रोत थे।

62. नेता हमारे प्रेरणास्त्रोत

मेरे एक मित्र श्याम सुंदर जेठा जो कि दीपक एडवरटाईजिंग एजेंसी के संचालक हैं ने बताया कि राजनीति में उच्च शिखर पर विराजमान नेतागण उनके जीवन के प्रेरणास्त्रोत हैं। यदि आपको इसमें कोई संशय हो तो मैं उनके पास आपको ले चलता हूँ, आप स्वयं हमारे वार्तालाप के बाद मेरी बात से सहमत हो जायेंगे।

मैं जेठा जी के साथ उनके आदर्श नेताजी के पास गया और जेठा जी ने मेरा परिचय उनसे कराते हुए बताया कि ये एक लेखक है जो कि प्रेरणादायक घटनाओं पर कोई पुस्तक का लेखन कर रहे हैं। नेताजी बोले कि ना जाने क्या बात है कि पत्रकार और लेखक हमारे प्रेरक प्रसंगों का उल्लेख नही करते बल्कि कार्यप्रणाली की आलोचना करते हैं। यह मेरी सहनशीलता है कि मेरे विरोधी मेरे बारे में अनर्गल बातें करते है परंतु मैं इन सभी बातों को भूलकर उनसे लड़ता नही हूँ बल्कि कभी भी उनसे मिल लेता हूँ। जेठा जी बोले हम लोग आम जनजीवन में छोटी छोटी बातों में आपा खोकर लड़ाई झगड़ा एवं मारपीट करते है। नेताजी के समान सहनशीलता हम सब के लिए प्रेरणा का स्त्रोत है।

यह सुनकर नेताजी प्रसन्न हो गये और बोले कि नेतागिरी में स्थायी वैमनस्यता कभी नही होती। दिल मिले या ना मिले हम लोग हाथ मिलाते रहते है क्योंकि हमें कभी भी कहीं भी एक दूसरे की आवश्यकता बनी रहती है। इसलिए राजनीति में ना तो स्थायी मित्रता होती हैं और ना ही दुश्मनी। जेठाजी यह सुनकर बोलने लगे कि यह एक अच्छा गुण है। इसे अपनाकर हमे यह प्रेरणा मिलती हैं कि जीवन में स्थायी दुश्मनी किसी से मत करो।

अब नेताजी भाव विभोर हो गये और बोले विभिन्न विचारधाराओं एवं विभिन्न मतो के होते हुए भी हम लोग गठबंधन करके परिवार का एक रूप लेकर सर्वोच्च पद प्राप्त कर उसका सुख और आनंद लेते है। जेठा जी का मत था कि नेताओं का यह अंदाज हमारे लिए प्रेरणा देता हैं कि हर परिवार और समाज में एक मजबूत गठबंधन से सब बंधे रहें, बिखराव और ना बढे़ और अपने जीवन में सदा आनंद को प्राप्त कर गठबंधन को अपने जीवन का अमूल्य सूत्र बनालें।

नेताजी ने वार्तालाप समाप्त होने के पहले अंतिम बात यह बताई कि उनमें यह खासियत है कि वे समय के अनुसार देशहित की बातों को अपने अनुसार परिवर्तित करके लक्ष्य को प्राप्त कर लेते हैं जेठा जी ने इसकी व्याख्या करते हुए कहा कि हमें परिवार हित में, सामाजिक हित में अपने स्वभाव में परिवर्तन करते रहना चाहिए। इतने वार्तालाप के उपरांत हम लोग बाहर निकल आये। श्यामसुंदर जेठा जी ने मुझसे पूछा कि अब बताओ नेता मेरे प्रेरणास्त्रोत है, इसमें क्या बुराई है। मैने कहा कि यह आपका निजी मामला हैं कि आप अपने नेता को प्रेरणा स्त्रोत माने या ना माने।

63. जीवन को सफल नही सार्थक बनाए

हमें जीवन को यदि समग्रता से जीना है तो हमें उसकी परिभाषा को आत्मसात् करना होगा जीवन उतार चढ़ाव, सुख दुख, आशा निराशा, सफलता और असफलता का नाम हैं। यह विचार व्यक्त करते हुए प्रो, एच.बी. पालन अतीत में खो गए। वे बोले जीवन में कुछ ना कुछ घटनाएँ ऐसी घटित हो जाती है जो हमारी दिशा एवं दशा बदल देती है। उन्होंने बताया कि उनकी शिक्षा केमेस्ट्री में एम.एस.सी होने के कारण उस समय उन्हें रोजगार के अवसरों की कोई कमी नही थी। देश के प्रतिष्ठित अनेकों संस्थान उन्हें नौकरी देने के लिए तैयार थे।

उनमें से एक मफतलाल इंडस्ट्रीज़ में कार्य करने हेतु वे मुंबई गये परंतु दुर्भाग्यवश वहाँ कार्यरत होने के पहले ही उनके पिताजी का निधन हो गया और उन्हे वापिस जबलपुर आना पड़ा। उनकी माँ ने उन्हें बुलाकर कहा कि वे अकेली हो गयी है इसलिए तुम जबलपुर से बाहर मत जाओ। यह सुनकर वे स्तब्ध रह गये और समझ नही पा रहे थे कि मफतलाल ग्रुप को छोड़कर, माँ की बात को माने या नही।

एक ओर आर्थिक भविष्य सुरक्षित था वही दूसरी ओर माँ के प्रति मेरी नैतिक जवाबदारी और उनका स्नेह एवं प्यार था। इसमें उन्हें किसे स्वीकार करना चाहिए वे असमंजस में थे। उन्होने अपनी मन की बात माँ के सामने रखी। वे बोली सफलता ही मात्र जीवन को ऊँचाई पर ले जाने की सीढ़ी नही है, तुम सफलता की जगह जीवन को सार्थक बनाओ जो कि किसी के जीवन में खुशियाँ ला सके, बदलाव कर सके एवं जीवन की दशा व दिशा बदल सके। माँ के इस कथन ने एवं विचारों ने उनके मानस पटल पर ऐसा प्रभाव डाला कि उन्होंने फैसला कर लिया कि वे जबलपुर में रहकर ही ऐसा कार्य करेंगे जिससे माँ के सपने साकार हो सके।

ईश्वर की कृपा से उन्हें जबलपुर साइंस कालेज में व्याख्याता के पद पर नियुक्ति का आदेश मिल गया। वे स्वीकार करते हैं कि माँ की प्रेरणा एंव प्रेरक व्यक्तित्व के कारण ही उन्होंने छात्रों के लिए राष्ट्रीय सेवा योजना के अंतर्गत अनेकों सेवा कार्य किए जिनमें प्रमुख हैं:- प्रौढ़ शिक्षा, वृक्षारोपण, बुक बैंक योजना के माध्यम से समाज सेवा को नयी दिशा दी है। वे धर्मार्थ चिकित्सालय एवं अनेक संस्थाओं के सेवा कार्यों से संबंद्ध रहते है और जीवन के प्रत्येक क्षण का उपयोग वे सार्थक बनाने, दूसरों को खुशियाँ बाँटने में व्यतीत करते हैं इससे उन्हें जीवन में असीम शांति और आत्मसंतुष्टि मिलती है। उनका कहना है कि व्यक्ति को अपना जीवन का समग्रता के साथ जीना चाहिए। हमें पल पल का सदुपयोग करते हुए परमार्थ करना ही जीवन की सफलता है।

64. अहंकार

आलोक दवे ( रिटा. जी.एम. रेल्वे ) ने बताया कि मानव में अंहकार ना हो यह बहुत कठिन है। हम सेवा अवश्य करते हैं परंतु उसमें से अहंकार का भाव ना हो तभी वह सच्ची सेवा है इसी संबंध में वे अपने जीवन का एक घटना बताते है जिसने ना केवल उनके मन से अहंकार हटा दिया बल्कि सबकुछ कर्ता धर्ता प्रभु हैं हम केवल उनके माध्यम हैं, का अहसास भी कराकर उनके जीवन में अभूतपूर्व परिवर्तन कर दिया।

सन् 2006 में उनकी अतिप्रिय चाची जी की कैंसर से मृत्यु हो गयी, उनके इलाज के लिए सभी ने बहुत कोशिशे की और पता लगा कि इस असाध्य रोग में खर्च तो बहुत होता है परंतु हाथ कुछ नही आता सिवाए रोगी का कष्ट हम कुछ दिनो के लिए और बढ़ा देते है। सन् 2007 में उनका स्थानांतरण मंडल रेल प्रबंधक के रूप में जबलपुर मे हुआ इसी दौरान पता चला कि कांकेर के एक गरीब परिवार के छः माह के एक बच्चे को कुछ इलाज की आवश्यकता है जिसे उन्होंने पत्नी की सहमति लेकर सेवा के रूप में उसे इलाज कराने का मन बना लिया उन्हें ऐसा लगा जैसे इस कार्य को करने में परमपिता परमेश्वर का विशेष अनुग्रह है। उन्होंने निश्चय के उपरांत जुलाई माह मे उस व्यक्ति से मुलाकात की।

कांकेंर के रहने वाले उस गरीब व्यक्ति ने अपनी व्यथा बताते हुए कहा कि उसके नवजात शिशु की आँखों में कुछ समस्या है उसने रायपुर में इलाज करवाया था पर जब वह हैदराबाद गया तो उसे पता चला कि उसके छः माह के बच्चे की एक आँख में कैंसर हैं। आलोक दवे यह सुनकर घबरा गये क्योंकि उन्होंने अपनी चाची के इलाज में होने वाले खर्च को देखा था। यह बात जब उन्होने पत्नी को बतायी तो उनकी पत्नी ने साहस पूर्वक कहा कि यह सेवा का कार्य है अब पीछे मत हटना। दवे जी भयभीत थे कि इस इलाज में लाखों रूपये का खर्च होगा इसे वह कैसे दे सकेंगे। यह सोचकर वे बहुत परेशान हो गये परंतु पत्नी के कहने पर भरे मन से सोचने लगे कि शायद यह रूपये अपने पी.एफ. से निकालना पडेंगे जो कि एक सरकारी कर्मचारी के लिये बहुत कष्टप्रद होता है वह भी जब आप अपने या अपने परिवार को छोड़कर किसी अनजान पर खर्च कर रहे हों। उन्होंने तुरंत ही शंकर नेत्रालय में बात की और 3 अगस्त का समय मिला। उन्होंने उस बच्चे के परिवार सहित चेन्नई जाने की व्यवस्था कर दी और उसके बाद अपनी दैनिक दिनचर्या एवं कार्यालीन कार्यों में व्यस्त हो गये।

7-8 अगस्त के आसपास उनके एक रेल्वे से सेवानिवृत्त मित्र आये और उन्होंने चेन्नई में 5 दिनों के लिए 15 से 20 अगस्त तक रेस्ट हाऊस में प्रबंध करने की मदद माँगी। उनके मित्र ने चर्चा के दौरान बताया कि चेन्नई अपनी आँख की जाँच करवाने के लिए जा रहे हैं क्योंकि छः माह पहले ही उनकी एक आँख जिसमें कैंसर था का शंकर नेत्रालय में आपरेशन हुआ है और उसकी जगह पत्थर की आँख प्रत्यारोपित की गयी है। यह सुनकर उनके जेहन में घंटियाँ सी बज उठी, दवे जी ने डरते डरते अपने मित्र को बताया कि एक छोटा बच्चा जिसकी आँख में कैंसर हैं को 3 अगस्त को शंकर नेत्रालय में बुलाया गया है उनके मित्र अनमने से होकर बोले समय क्यों व्यर्थ कर रहे हो कहीं कैंसर उसकी दूसरी आँख या मस्तिष्क में ना फैल जाए। उन्होंने शंकर नेत्रालय में स्वयं ही चिकित्सक से बात कर 15 अगस्त की तारीख उस बच्चे के आपरेशन के लिए निर्धारित कर दी। यह सब इतनी जल्दी में हुआ कि मुझे तुरंत उस व्यक्ति को सूचना देकर चेन्नई में ही रूकने का प्रबंध करना पड़ा।

अब उनके मन में खर्च के प्रश्न ने परेशान करना शुरू कर दिया। उन्होंने डरते डरते अपने मित्र से पूछा कि इस आपरेशन में कितना खर्च होता है उसने बताया मात्र 45 हजार रू. लगते हैं यह सुनते ही दवे जी की चिंता समाप्त हो गयी और उन्होंने तुरंत बैंक से 45 हजार रू. निकालकर मित्र को दे दिये और उसे चेन्नई रवाना कर दिया। एकाएक सभी कुछ व्यवस्थित व संभव सा लगने लगा उनके मित्र ने उस बच्चे के इलाज मे बहुत मदद की यहाँ तक की उसने अपनी तरफ से अस्पताल के प्रबंधक से कुछ छूट देने का अनुरोध किया कि वह एक बच्चा है और उसका पिता गरीब है। उसने दवे जी को जब फोन पर यह बताया तो दवे जी बोले कि ऐसा अनुरोध करने की कोई आवश्यकता नही है इतना खर्च वह सहर्ष वहन कर सकते हैं। दूसरे दिन उनका मित्र जब पुनः प्रबंधक से मिला तो उसने बड़े उत्साह से सूचित किया कि अस्पताल प्रबंधन ने निर्णय लिया है कि शंकर नेत्रालय में इस बच्चे का आपरेशन ना केवल निशुल्क किया जायेगा बल्कि अगले पाँच सालों तक का चैकअप भी निशुल्क होगा।

उनके मित्र ने तुरंत ही यह जानकारी दवे जी को टेलीफोन पर दे दी। यह सुनकर दवे जी हतप्रभ रह गये, वे अहंकारवश सोच रहे थे कि 45 हजार रू. खर्च करके उस बच्चे का आपरेशन कराकर वे सेवाकार्य कर रहे हैं परंतु अब उसका निशुल्क आपरेशन प्रभु कृपा से होना जानकर उनको मन में यह आभास हो गया कि सब कुछ प्रभु की इच्छा पर निर्भर है वे केवल निमित्त मात्र थे। अहंकार के इस रूप को समझने में उन्हें समय लगा पर यह उनके जीवन का सबसे अभूतपूर्व व रोमांचित करने वाली घटना हैं। वे यह अच्छे से समझ गये कि विपत्ति के समय तुम जब घबराते हो कि अब क्या होगा और कैसे होगा ? उस समय भी याद रखो कि करने वाला अब भी परमपिता परमेश्वर ही हैं।

65. उद्योग और विकास

उद्योगपति अरूण भटनागर कहते हैं कि वर्तमान समय में कठिन आर्थिक मंदी की परिस्थितियों में समुचित तकनीकि जानकारी के बिना, माल की बिक्री में कठिन स्पर्धा की स्थिति में कार्यभार संभालने की क्षमता रखने वाला व्यक्ति ना हो तो किसी भी उद्योग को आज की परिस्थितियों में खोलने का निर्णय अपने परिवार को आर्थिक जोखिम में डालना ही है। उन्होंने बताया कि आज से 20 वर्ष पूर्व ब्रोमाइट केमिकल नामक संस्थान में उन्होंने अपने एक भागीदार के साथ मिलकर फोटो प्रोसेसिंग केमिकल जिसका उपयोग मेडिकल एवं इंडस्ट्रीयल एक्स रे फिल्म एवं ग्रेफ्कि आर्ट फिल्म तथा कागज के निर्माण में होता है का उत्पादन प्रारंभ किया था। उस समय इसे देश में केवल बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ जैस कोडेक, एगफा, फ्यूजी एवं मे एंड बेकर आदि ही इनको बनाती थी। उनके कठिन परिश्रम मेहनत एवं उत्पादन की गुणवत्ता के कारण धीरे धीरे बाजार में उनके उत्पादन की बिक्री बढ़ती चली गयी।

उन्हें इस केमिकल के निर्माण की प्रेरणा उनकी माँ के विचारों के कारण प्राप्त हुई जो कि एक स्वतंत्रता संग्राम सेनानी थी और हमेशा कहा करती थी कि हमें पश्चिमी देशो का अनुसरण ना करते हुए अपने देश में तकनीकि विकास से औद्योगिक विकास करना चाहिए। वे कहते हैं कि दूसरे प्रेरणा स्त्रोत एक रेल्वे ड्राइवर जिसने उन्हें जब वे कोडेक कंपनी में तकनीकि बिक्री अधिकारी थे तब सहयोग दिया था। उनके तीसरे प्रेरणा स्त्रोत दिल्ली प्रेस के तत्कालीन निर्देशक थे जिसे उन्होंने इस केमिकल के उत्पादन के लिए प्रेरित किया। ईश्वर की कृपा से उनका व्यापार सफल होता चला गया और आज विदेशो में भी उनकी कंपनी का माल जाता है जिससे हमारे देश को विदेशी मुद्रा प्राप्त होती हैं। अरूण भटनागर जी का जीवन कठिन परिश्रम, लगन एवं कार्य के प्रति समर्पण में बीत रहा है जो कि आज की युवा पीढ़ी के लिए प्रेरणा का स्त्रोत हैं।

66. शिक्षक का कर्तव्य

अपने बौद्धिक कौशल, चिंतन एवं सवंदेना का अद्भुत समन्वय के साथ साथ नीति निर्धारण, योजनाओं के क्रियान्वयन तथा आर्थिक संयोजन में चिंतन की अद्भुत क्षमता के धनी डा. फादर वलन अरासू जो कि सेंट अलायसिस कालेज में प्रधानाध्यापक है कहते है कि वे छात्रों के प्रति स्नेह , करूणा एवं उनके कल्याण के प्रति प्रतिबद्ध है। वे विद्यार्थियों के प्रति असीम स्नेह के दो उदाहरण बताते हैं।

एक विद्यार्थी अत्यंत उद्दंड एवं अशिष्ट था उसका अध्ययन के अतिरिक्त शेष हर जगह दखल रहता था। वह अक्सर मारपीट एवं अभद्र व्यवहार करता रहता था, सभी अध्यापकों की राय थी कि उसे महाविद्यालय से निष्कासित कर दिया जाए परंतु फादर ने उसे बुलाया उसकी पारिवारिक स्थिति की जानकारी प्राप्त की। वह छात्र अपने माता पिता का एकलौता पुत्र था तथा उसके पिता को कैंसर था। फादर ने उसे भावनात्मक रूप से झिंझोड़ा, समझाया और पारिवारिक प्रतिष्ठा एवं दायित्वों का बोध कराया। उस विद्यार्थी में अंततः परिवर्तन हुआ और तब से वह गुरूजनों का बेहद सम्मान करने लगा। वह एक दिन फादर के पास आया और बोला कि आप चाहते तो मुझे महाविद्यालय से निकाल देते परंतु आपने मेरे भविष्य को देखते हुए मुझे समझाया, मेरे पिता से संपर्क किया इससे मेरा सोचने का ढंग बदल गया। आपने वास्तव में मेरे भविष्य की रक्षा की इतना कहते हुए उसने फादर के चरण स्पर्श करके आशीर्वाद लिया।

दूसरे उदाहरण में एक विद्यार्थी किसी बाहरी जिले से पढ़ने के लिए आया था और छात्रावास में रहता था। कालांतर में पता चला कि घर से पैसा पाने के बाद भी उसने ना तो शुल्क जमा किया और ना ही उचित ढंग से पढ़ाई की। फादर ने उसके पिता को बुलवाया तथा संपूर्ण स्थितियों से अवगत कराया। उस छात्र के पिताजी हतप्रभ हो गये कि उन्होंने बड़े अरमान के साथ अपने बेटे को इस प्रसिद्ध संस्थान में पढ़ने के लिए भेजा था किंतु उनका यह बेटा उनके साथ ही नही अपितु अपने जीवन के साथ भी छल कर रहा था। वे स्वयं एक शिक्षक थे फादर ने उस बच्चे की जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली और कक्षा में उसकी उपस्थिति तथा समय निष्ठता को सुनिश्चित करने की व्यवस्था की। इसलिए उन्होंने कुछ अध्यापकों एवं उपप्राचार्य को इसका दायित्व सौंपा जिसका परिणाम यह हुआ कि वह विद्यार्थि मुख्य धारा में आकर अध्ययन के प्रति समर्पित हो गया।

फादर के विचार हैं कि उनकी आवश्यकता उन्हें नही है जो समर्थ है बल्कि उन्हें है जो अक्षम और अभावग्रस्त है। राह से भटके हुए विद्यार्थीयों को सन्मार्ग पर ले आना सच्ची सेवा है। इसलिए शैक्षणिक संस्थानों का दायित्व है कि वे पूरी सोच, विद्यार्थियों के हित और उनके चरित्र निर्माण पर ध्यान केंद्रित करें। बहुत अच्छे परिवार से आये अत्यंत सभ्य और तीव्र बुद्धि वाले विद्यार्थी सभी को प्रिय होते है पंरतु निम्न जीवन स्तर से आये हुए एकाग्रहीन और सामाजिक शिष्टाचारों से अनभिज्ञ विद्यार्थीयों को अधिकतम समय देना और उन्हें श्रेष्ठ मनुष्य के रूप में परिवर्तित करना वास्तविक राष्ट्रनिर्माण है।

67. मित्र की मित्रता

हमें सफलता के लिए पूर्ण दक्षता के साथ कर्म तो करना चाहिए किंतु कर्म से प्राप्त अच्छा या बुरा जैसा भी हो उसे ईश्वर की इच्छा मान कर स्वीकार करना चाहिए ताकि हमारा जीवन आनंदित एवं प्रफ्फुलित रहे। यह विचार व्यक्त करते हुए धर्म प्रेमी, प्रतिष्ठित व्यवसायी एवं अनेक धर्मार्थ संस्थाओं के प्रणेता एवं चेयरमेन मधुसूदनदास मालपाणी ने आगे कहा कि आज मानव को मानव से प्रेम कम होता जा रहा है यदि मानव दूसरे मानव की कठिनाईयों को समझे और उसके निराकरण का प्रयास करे तो समाज में क्रांति लाई जा सकती हैं।

एक उदाहरण देकर बताते हैं कि दो मित्र एक ही पाठशाला में अध्ययनरत् थे। अध्ययन समाप्त होने के पश्चात वे दोनो अपने अपने कार्यों में व्यस्त हो गये। कई वर्षों बाद उनकी आपस में मुलाकात होती है वे दोनो एक दूसरे से मिलकर बहुत प्रसन्न होते हैं उनकी आपस मे बातचीत से ज्ञात होता है कि एक मित्र बहुत कठिन परिस्थितियों से गुजर रहा है वह ईमानदारी से कठोर परिश्रम करने के बाद भी इतना धन नही कमा पाता कि परिवार का पालन पोषण कर सकें। उसका दूसरा मित्र व्यवसाय में बहुत तरक्की करके सुख, समृद्धि एवं वैभव का जीवन जी रहा था।

उसे अपने दूसरे मित्र का हाल जानकर बहुत दुख हुआ और उसने उसे मदद करने के लिए अपने व्यवसाय में साइकिल स्टैंड का ठेका दे दिया। उसने ईमानदारी से काम करते हुए साइकिल स्टैंड से प्राप्त होने वाली आय दुगुनी कर दी जिससे प्रभावित होकर प्रबंधन ने उसे भोजनालय विभाग का भी संचालक बना दिया। यह काम करते हुए भी उसने आय में काफी वृद्धि कर ली। अपने व्यवसाय की आय में दिन दूनी और रात चैगनी वृद्धि देखकर उसके मित्र ने उसे व्यवसाय मे भागीदार बना लिया।

अब वह मित्र आर्थिक रूप से स्वावलंबी हो गया उसके कड़ी मेहनत और ईमानदारी से दोनो ही मित्रों को आर्थिक लाभ हुआ। इस प्रकार अभावों से त्रस्त उस मित्र का जीवन परिवर्तित हो गया। आज भी वह अपने बचपन के पुराने मित्र का आभारी है जिसने उसे आर्थिक रूप से नया जीवन प्रदान किया। इस उदाहरण से हमें यह प्रेरणा मिलती है कि खराब वक्त में हमारे मित्र, सहयोगी या रिश्तेदारों की मदद अवश्य करनी चाहिए ताकि वह पुनः स्थापित हो सके।

68. कार्य के प्रति समर्पण

म.प्र. उच्च न्यायालय के वरिष्ठ अधिवक्ता हरिशंकर दुबे ने म्यूनिसिपल हाई स्कूल गाडरवारा से हायर सेकेंड्ररी की परीक्षा उत्तीर्ण करने के बाद एल.एल.बी की डिग्री प्राप्त की। उनके गाँव में उनका संपर्क गरीब परिस्थिति के लोगो से हुआ। उन्होंने महसूस किया कि ऐसे गरीब तबके के लिए न्याय मिलना आवश्यक है तभी वे अपना भविष्य उज्जवल बना सकेंगे।

एल.एल.बी करने के पश्चात् कुछ समय के लिए वरिष्ठ अधिवक्ता एस.सी.दत्त के यहाँ अनुभव प्राप्त किया। वे दत्त साहब की कार्यप्रणाली और उनका कार्य के प्रति समर्पण देखकर बहुत प्रभावित हुए और उनको अपना प्रेरणा स्त्रोत मानने लगे। वे उदाहरण देकर बताते है कि उनके यहाँ काम करने के दौरान वे अपनी निजी वकालत भी करते थे यहाँ तक कि कुछ प्रकरणों में हम दोनो एक दूसरे के विरूद्ध न्यायालय में उपस्थित होकर जिरह करते थे।

मेरे ऊपर पक्षकारों को विश्वास था कि उनकी तरफ से केस लडने के लिए मेरी ओर से कोई कमी नही रहेगी। यह उनके आत्मविश्वास की बात थी इससे उन्हें प्रेरणा मिली कि मेहनत और ईमानदारी से कार्य करने का फल अवश्य मिलता है। उनके यहाँ आज भी गरीब तबके के लोगो को कानून संबंधी मुफ्त मदद दी जाती है जिसे वे अपना धर्म मानते हैं। श्री दुबे जी का कहना है कि व्यक्ति को अपने कार्य को ही अपना धर्म मानकर करना चाहिए। अधिवक्ता का अपने पक्षकार के प्रति समर्पण और उसके प्रकरण के प्रति ज्ञान ही सफलता और असफलता का आधार बनता है अतः पूरी निष्ठा और समर्पण से अपने कार्य को अंजाम देने से यदि असफलता भी मिलती है तो आत्मसंतोष बना रहता है।

69. जीवन संघर्ष

सुप्रसिद्ध चिकित्सक डा. जी.सी. दुल्हानी से जब मैंने चर्चा की तो वह अतीत में मानो खो गये, वे बोले कि उनका सारा जीवन संघर्ष, समझौते एवं समर्पण में बीत गया। उनके इंटरमिडिएट की षिक्षा पूर्ण होते ही उनका जीवन संघर्ष आरंभ हो गया। वे उस समय की घटना को याद करते हुए बताते हैं कि उनके परिवार में किराने की एक दुकान हुआ करती थी जिसमें तीन भागीदार थे, उनके दादा, दादा के सगे भाई एवं दादा के चचेरे भाई। उनमें सब कुछ ठीक चल रहा था परंतु एक दिन अचानक ही उनके दादा जो सबसे बड़े और वृद्ध थे उन्हें उनके सगे भाई व चचेरे भाई ने मिलकर दुकान से उनका हिस्सा दिये बिना ही बेदखल कर दिया। हम लोग यह नही समझ पाये कि ऐसा क्यों हुआ हमारे परिवार में उस समय 15 सदस्य थे और हमें इस अचानक हुये परिवर्तन से खाने के भी लाले पड़ गए।

हम लोगों ने बड़ी मुश्किल से रूपयों की व्यवस्था कर किराने की एक छोटी सी दुकान प्रारंभ कर ली परंतु उससे इतने बड़े परिवार का गुजारा संभव नही था। उनके दादा एवं माँ को उनके बड़े बेटे होने की वजह से उनसे बहुत उम्मीदे थी। उन्ही दिनो उनके मित्रो ने मेडिकल कालेज में एडमिशन के लिए फार्म मंगाए, उस समय आज के समान एंट्रेंस एग्जाम नही होते थे। उनके एक मित्र ने गलती से दो फार्म मंगा लिए, उसमें से एक फार्म इन्हें देकर उसे भरकर भिजवाने के लिए कहा। डा. दुल्हानी ने उसे भरकर भिजवा दिया परंतु जब घर में पता चला तो जैसे बवाल सा मच गया। उनके घर में माँ और दादा दोनो ही घर से दूर रहकर शिक्षा लेने के खिलाफ थे उन्हें संभवतः यह डर सता रहा था कि डाॅक्टर बनने के बाद वे उनसे अलग हो जायेंगे। उन्हें समझाने और उनकी सहमति लेने के लिए उनको घर में ही तीन दिन भूख हड़ताल करनी पड़ी तब बड़ी मुश्किल से इसके लिए सहमति बन सकी।

अब फार्म जमा करने की अंतिम तिथि में मात्र दो दिन बचे थे। वे फार्म लेकर जबलपुर अपने जीजाजी के पास आये उन्होने तुरंत ही अपने कर्मचारी को फार्म एवं रूपये देकर जमा कराने भिजवा दिया। प्रभु कृपा से उनका फार्म जमा होकर प्रवेश भी मिल गया। उन्हें कालेज में ही हास्टल में रहने के लिए एक कमरा मिल गया। अब उनके लिए पाँच साल की पढ़ाई के लिए निवास, भोजन और किताबों के रूपये का इंतजाम करना आसान नही था। उन्होने स्कालरशिप के लिए फार्म भर दिया, उनका यह आवेदन मंजूर होकर उन्हें प्रतिवर्ष 1200 रू. स्कालरशिप स्वीकृत हो गयी और ना जाने कैसे देखते देखते ही पाँच वर्ष व्यतीत हो गये और वे डाक्टर बन गये।

अब उनका जीवन संघर्ष और भी तेज हो गया। उन्हें स्वयं को स्थापित करना, छोटे भाईयों और बहनों की अधूरी पढ़ाई को पूरी करवाने की जवाबदारी एवं उन्हें समुचित रोजगार से लगाना आदि काम आसान नही थे। उनके रिश्ते के एक चाचाजी ने जबलपुर में लालमाटी क्षेत्र में एक दुकान दिलवा दी और फर्नीचर आदि की व्यवस्था भी उन्ही के द्वारा कर दी गयी। इसी दुकान से उन्होंने अपनी क्लीनिकल प्रेक्टिस आरंभ की और धीरे धीरे उनका काम वहाँ जम गया। वे अपने पूरे परिवार को अब जबलपुर ले आये। उनके दादा, दादी की मृत्यु के उपरांत भी उनकी पत्नी को मिलाकर 14 सदस्य थे। उनके पास इतना रूपया तो नही था कि वे अपने भाइयों को व्यवसाय शुरू कराते। उन्होने उन सब को पूरी शिक्षा दिलवाकर कुछ ऐसे हुनर सिखाए जिससे वे अपनी रोजी रोटी लायक धन कमा सके। वे सभी इस बात से सहमत थे और धीरे धीरे समय के साथ वे सभी धनोपार्जन करने लगे और अपनी अपनी शादियों के बाद सुखी एंव संतुष्ट जीवन व्यतीत कर रहे हैं।

डा. दुल्हानी कहते हैं कि उनके इस जीवन संघर्ष में सफल होने का श्रेय उनकी पत्नी को है जिसने हर कदम पर ईमानदारी एंव लगन के साथ सहयोग दिया अपने लिये कभी कुछ भी नही माँगा यदि उनका सहयोग एवं मार्गदर्शन प्राप्त नही होता तो कुछ भी संभव नही था। आज ईश्वर की असीम कृपा से उनके पास समृद्धि एवं प्रतिष्ठा दोनो है।

70. गुरू कृपा

पंडित रोहित दुबे भुवन विजय पंचांग के संपादक, शिक्षा में इंजीनियरिंग में स्नातक एवं सुप्रसिद्ध ज्योतिषाचार्य के रूप में जाने जाते है। वे कहते हैं कि यदि पूर्व जन्मों की बात छोड दे तो इस जन्म में उन्हें हनुमान जी के अनन्य भक्त गुरूदेव पंडित श्री रमाकांत झा का सानिध्य मिला। उनके 12 वर्ष की अवस्था से ही पारिवारिक परिस्थितियाँ उनके अनुकूल नही थी किंतु उनके गुरूदेव ने उनकी बाँह पकडकर धर्म, आध्यात्म के साथ साथ शिक्षा की ओर पूर्ण ध्यान दिया और छोटी छोटी प्रेरणादायक बातों को सरल एवं ग्राह्य बनाकर अंतर्मन में इस प्रकार प्रविष्ट किया कि वे आज तक जीवन में संबल बनकर प्रेरणा का स्त्रोत हैं।

ज्योतिष के क्षेत्र में उनकी स्वयं की कोई रूचि नही थी पंरतु गुरूजी की कृपा का ही परिणाम है कि आज कर्मकांड और ज्योतिष उनका कार्यक्षेत्र बन गया है। इंजीनियरिंग की तकनीकि शिक्षा का अध्ययन करने के साथ साथ गुरूजी ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन भी कराते रहे जो कि आज उनकी जीविका का माध्यम भी बन गया।

इंजीनियरिंग की शिक्षा की पूर्णता के पूर्व उनके मार्गदर्शक का स्वर्गारोहण हो गया। उन्होने मृत्यु के आधा घंटे पूर्व उन्हें आदेश देकर यह शपथ ग्रहण करवाई की उन्हें उनका उत्तरदायित्व स्वीकार करना होगा। समाज के प्रतिष्ठि व्यक्तियों ने उन्हें पूर्ण रूप से ज्योतिष के क्षेत्र में प्रवेश करा दिया और तकनीकि डिग्री होने के बाद भी जीवन की दिशा ही परिवर्तित हो गयी। अब ज्योतिष के साथ साथ वे पंचांग निर्माण के सूत्र जो अत्यंत कठिन होते हैं उसमें भी पारंगत हो गये। उनकी एकाग्रता समर्पण सेवा की त्रिवेणी ने जीवन की धारा को स्वर्णिम मोड़ दे दिया एवं उनकी प्रतिष्ठा में उत्तरोत्तर प्रगति होने लगी।

समय अपनी गति से चल रहा था उसी समय पंडित रामकिंकर जी उपाध्याय ने स्वयं के लिए भविष्यवाणी एवं ज्योतिष परीक्षण के लिए उनका सम्मान किया जिसकी सुखद अनुभूति उनके जीवन की सबसे सुरक्षित निधि है। उन्हें वे अपने जीवन में प्रेरणा का स्त्रोत मानते हैं। जीवन में कई बार विकट परिस्थितियों में जब अपने आप को असहाय महसूस किया, रास्ता नही दिखाई दे रहा था तो उस क्षण भी उनका स्मरण करने मात्र से ही सभी समस्याओं का दैविक समाधान हो जाता हैं। जीवन में प्रभु कृपा के बाद संतों की कृपा का प्रभाव भी विलक्षण होता है। स्वामी गिरीशानंद जी का आशीर्वाद भी पथप्रदर्शक के रूप में आज भी वे अपने अंतर्मन मे महसूस करते हैं। उनका मानना है कि पिता की साधना एवं माँ का स्नेह पाने के बाद जो अपने कर्तव्य का पालन करता है वही पुत्र आगे चलकर धन्य होता है।

71. पड़ोसी धर्म

आम आदमी की जिंदगी मे भी कुछ घटनाएँ इस तरह घटित होती है कि व्यक्ति के मस्तिष्क में अंकित हो जाती है और उसे मानवीय आधार पर कार्य करने की प्रेरणा देती है। ऐसा कहते हुए श्रीमती ममता गिरिराज चाचा ने एक घटना के विषय में विस्तारपूर्वक बताया जिसने उनके मन, मस्तिष्क को झकझोर दिया था।

वे अपने परिवार के साथ जिस स्थान पर निवास करती थी, वहाँ चर्च, गुरूद्वारा, मंदिर एवं मस्जिद बने हुए थे और सभी धर्म के अनुयायी अपने अपने धर्म और श्रद्धा के अनुसार पूजन, अर्चन, वंदन करते हुए अपने परिवार के साथ सौहाद्रपूर्वक रहते थे। वहाँ की महिलाएँ जब आपस में मिलती थी तो यह कमी अवश्य बताती थी कि सब लोग बड़े शहरों की तरह अपने अपने में ही मगन रहते हैं। हमें एक दूसरे से मिलना चाहिए, एक दूसरे से सुख दुख की जानकारी लेना चाहिए। इस पर बातें तो बहुत होती थी परंतु व्यवहार में ये बातें नही आयी थी।

एक दिन अचानक 31 अक्टूबर 1984 को अप्रत्याशित घटना घट गयी जिसने पूरे देश को झकझोर दिया। देश की प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी की सुरक्षा में तैनात सुरक्षा कर्मी ने उनकी गोली मारकर हत्या कर दी। सुरक्षा कर्मी सिख सरदार था इस घटना से देश की सद्भावना, अमन चैन, मानवीय भाईचारा कुछ समय के लिए शून्य हो गया और अकल्पनीय रूप से हिंसा भड़क उठी। लोग बिना सोचे विचारे अपना सारा क्रोध सिख समुदाय पर उतारने लगे।

उनके निवास के ठीक सामने एक सरदार जी का परिवार रहता था। सरदार जी किसी काम से बाहर गये हुये थे। उनके घर के सामने उग्र भीड़ एकत्रित हो गयी। घर में सरदारनी अपने पुत्र एवं पुत्री के साथ अकेली थी। भीड़ दरवाजा तोड़ने की कोशिश कर रही थी उनके घर पर पेट्रोल और मिट्टी का तेल डालकर आग लगाने की कोशिश हो रही थी। सरदार परिवार का जानमाल सबकुछ स्वाहा होने के कगार पर था। उस मकान के आसपास के सभी लोग एकत्रित होकर उग्र भीड़ को समझा रहे थे पर भीड़तंत्र किसी को सुनने तैयार नही था।

गिरिराज चाचा अचानक ओढ़ने की अण्डी ( एक प्रकार का ओढ़ने का कपड़ा ) लेकर नाले की तरफ से पड़ोसी के घर जाकर सरदार जी के घर में पहुँच गये और सरदारनी को अण्डी देकर लपेटने कहकर सबको साथ में लेकर वापिस अपने घर आ गये। सरदारनी और उनके बच्चों को सुरक्षित करने के बाद गिरिराज बाहर आकर सभी के साथ उपस्थित हो गये। इसी बीच सरदार जी के घर में भीड़ ने आग लगा दी। भीड़ में कुछ दुस्साहसी लोगों ने घर में घुसकर सामान की लूटपाट चालू कर दी। उनके घर में परिवार का कोई सदस्य नही मिला यह जानकर भीड़ क्रोधित हो गयी। कानून की व्यवस्था इतनी कमजोर होकर तहस नहस हो चुकी थी कि पुलिस थाना एवं दमकल विभाग फोन ही नही उठा रहा था। तभी कर्फ्यु लग गया और उग्र भीड़ तितर बितर हो गयी थी।

सरदारनी व बच्चों को सुरक्षित लाने एवं अपने घर पर रखने के कारण उनके मकान मालिक नाराज हो रहे थे। वहाँ आसपास के सभी लोग एकत्रित थे कि अन्य कोई घटना ना घटे इस दृष्टि से चैकस भी थे। सभी महिलाओं को अपने अपने घरों में भेज दिया गया था और पुरूष वर्ग सड़क पर घूम रहा था। किसी ने यह सत्य प्रसारित कर दिया था कि सरदारनी एवं बच्चों को गिरिराज चाचा पीछे से निकाल कर अपने घर ले गये हैं। यह जानकर कुछ अवांछित लोग पुनः उनके घर के आसपास एकत्रित होकर उनको अनाप शनाप कहते हुए चिल्लाने लगे। सरदारनी को बाहर निकालो के नारे लगने लगे। उनके पड़ोसी पूरे सचेत थे उन्होने उन लोगो को समझाना शुरू किया और उनके दरवाजे के सामने सुरक्षा हेतु खड़े हो गये। उनके एक पड़ोसी डा. रावत का परिचय सेनाधिकारियों से था, सेना भी हिंसा को शांत करने में सहयोग कर रही थी। उन्होंने सैनिक कार्यालय में फोन कर दिया और 15 मिनिट के अंदर ही सेना वहाँ आ गयी। सैन्य अधिकारी और सेना पुलिस की सुरक्षा में सैन्य वाहन से सरदार जी के परिवार को सुरक्षित स्थान पर ले जाया गया। सेना के सिपाहियों को देखकर भीड़तंत्र भाग खड़ा हुआ।

सरदार जी की संपत्ति को आगजनी से बहुत नुकसान हुआ पर सरदार परिवार की जान बच गयी। अब आसपास के लोग उनके घर पर आये। उन्होंने स्नेह भरे क्रोध से कहा कि एकबार तो हम घबरा गये थे कि उनकी भी जानमाल खतरे में हैं परंतु वहाँ के सब लोगों की एकता, समरसता और पड़ोसी धर्म की भावना देखकर धीरे धीरे हमारे भीतर भी हिम्मत जाग्रत हो गई। समय के साथ साथ स्थितियाँ सामान्य होने लगी। अब वहाँ पर सभी परिवार पहले के समान ही अपने सारे त्यौहार दीवाली, होली, क्रिसमस, बैसाखी, लोहड़ी, जन्माष्टमी, दशहरा आदि एक साथ मिलकर मनाते है।

72. प्रिवेंशन इज बेटर देन क्योर

डा. घनश्याम असरानी एक सुप्रसिद्ध समन्वय ( एलोपैथी एवं आयुर्वेद ) चिकित्सक है। वे कहते हैं कि उन्होने मौसमी बीमारियों के बचाव हेतु गहन शोध किया है। उनका निष्कर्ष यह है कि प्रदूषित वातावरण में हम बुखार, पेट की तकलीफ एवं एलर्जी इत्यादि से कैसे बचकर रहें ताकि यह बीमारियाँ आगे गंभीर रूप ना ले सकें। वे इसका कारण असंतुलित खान पान को बताते है। इनका मानना है कि भोज्य पदार्थ तीन प्रकार के होते हैं पहला पका भोजन अर्थात जिसे आग पर पकाया गया हो, दूसरा कच्चा भोजन अर्थात फल, सब्जियाँ इत्यादि एवं तीसरा पानी। वे कहते हैं कि इन तीनों को एक साथ कभी भी ग्रहण नही करना चाहिए इससे ही बीमारियाँ उत्पन्न होती हैं। इन सब भोज्य पदार्थों के बीच में कम से कम आधे घंटे का अंतराल होना चाहिए।

लगभग 20 वर्ष के शोध के पश्चात ये इस निष्कर्ष पर पहुँचे हैं कि यदि कच्चे, पके भोजन एवं पानी के अंतराल को व्यवस्थित रखा जाए तो किसी भी हालत मे मौसमी बीमारियाँ नही होंगी। वे आगे बताते हैं कि इन्होने इस प्रदूषित वातावरण में रहते हुए भी जिन लोगों पर इसका प्रयोग किया है उन्हें किसी प्रकार का कोई नुकसान नही हुआ बल्कि वे लंबे समय से बीमार भी नही हुए।

वे बताते हैं कि उन्हें इस संबंध में शोध करने की प्रेरणा आज से 20 वर्ष पूर्व जब लेखक लायंस इंडिया नामक संस्था के अध्यक्ष थे तब उनके द्वारा “ प्रिवेंशन इज बेटर देन क्योर “ विषय पर एक संगोष्ठी का आयोजन सभी विधाओं की चिकित्सा पद्धतियों के चिकित्सकों के बीच किया गया था जिसमें सभी ने बीमारियों से कैसे बचे विषय पर अपनी अपनी बात रखी थी।

इसी संगोष्ठी में उन्होने भी उनके उपरोक्त सिद्धांत को बताया था, इससे प्रेरित होकर उस सभागार का चैकीदार जो इसे सुन रहा था एवं उनका पुराना मरीज था, उसने इसे अपनाया। वह लगभग तीन चार माह बाद उनसे मिला और बोला कि डा. साहब मैं आपके द्वारा बताये गए भोजन के सिद्धांत को अपना रहा हूँ तथा विगत तीन माह से मैं पूर्णतया स्वस्थ्य हूँ। इससे उत्साहित होकर उन्होने दूसरे मरीजों के ऊपर भी उनके सिद्धांत का प्रयोग करके देखा और उन्हें भी इससे समुचित लाभ प्राप्त हुआ है। डा. असरानी जनसेवार्थ अपने इस सिद्धांत का प्रचार प्रसार निशुल्क रूप से कर रहे हैं।

73. अजगर

रंजना नाम की एक लड़की जो कि कक्षा आठवीं की छात्रा थी उसे वन्य जीवों से बहुत लगाव था। वह अपने रिश्तेदार के यहाँ रहकर पढाई कर रही थी उसके पिता जंगल में तेंदूपत्ते की ठेकेदारी का कार्य करते थे एवं उसकी माँ का निधन काफी पहले हो चुका था।

एक दिन अचानक ना जाने कहाँ से वह एक अजगर के छोटे बच्चे को लेकर आ गयी और उसे पालने लगी। वह उसे शाकाहारी भोजन देती थी। उसे अजगर के उस बच्चे से इतना लगाव था कि वह उसे अपने पास ही बिस्तर पर सुलाती थी। कुछ माह बाद एक दिन उसने देखा कि अजगर सीधा लंबा होकर लेटा हुआ है। वह तीन चार दिन से कुछ खा भी नही रहा था। यह देखकर वह उसे पशु चिकित्सालय ले गई और उसने डाक्टर को सब बातें बताई।

डाक्टर उसकी बात सुनकर चौंका और उसने उसको कहा कि अब यह अजगर छोटा बच्चा नही रहा यह क्रमशः बड़ा होता जा रहा है। अब इसके स्वभाव में परिवर्तन आ रहा है। यह कुछ दिनो से सीधा इसलिए सो रहा है कि यह अपनी लंबाई तुम्हारी लंबाई से नापने का प्रयास कर रहा है यह तुम्हें अपना भोजन समझ रहा है और तुम्हें निगलना चाहता है। यह कहकर डाक्टर ने तुरंत वन अधिकारियों को बुलाकर अजगर को उनके हवाले यह कहकर कर दिया कि पता नही कहाँ से इस लड़की को प्राप्त हो गया और वह इसे मेरे पास सौपने को लाई है।

ऐसा कहकर डाक्टर ने उस लड़की एवं उसके परिवार को अनावश्यक कानूनी पचड़ों से बचा लिया। उसने उसे समझाते हुए कहा वन्य जीवों से प्रेम करना अच्छी बात हैं परंतु उन्हें पालना उतना ही खतरनाक होता है। इसलिये सरकार ने ऐसे कठोर नियम बनाए है कि वन के प्राणी वन में ही रहें। अब से इस बात का हमेशा ध्यान रखना और आगे से ऐसी गलती कभी मत करना। यदि तुम यहाँ आने में कुछ दिन की और देरी कर देती तो पता नही क्या हादसा हो जाता।

74. तवांग

यह कथानक सन् 1962 में भारत और चीन के मध्य,युद्ध के समय का है जिसमें हमारे देश के वीर सैनिकों की कुर्बानी एवं तत्कालीन राजनेताओं की अदूरदर्शिता एवं अपरिपक्वता को दर्शाती है। चीन की सेना ने वर्तमान अरूणाचल प्रदेश में तवांग के पास अपनी फौजें तैनात कर दी थी और रात के समय उन्हें भारतीय सीमा में प्रवेश कराकर भारी गोलाबारी प्रारंभ कर दी। उनकी सेना के पास अत्याधुनिक हथियार थे उनका संचार तंत्र इतना मजबूत था कि संपूर्ण अरूणाचल प्रदेश में किस चौकी पर भारत के कितने सैनिक है उनके पास कितने दिन की रसद है एवं उनके पास क्या हथियार है इस सबकी संपूर्ण जानकारी चीन के पास थी।

उन्होंने तवांग की चौकी पर कब्जा करने के पूर्व चेतावनी दी कि आप लोग चौकी खाली कर दे अन्यथा मारे जायेंगे। कुछ देर तक भारतीय सेना लड़ती रही परंतु रसद एवं हथियार खत्म होता देखकर एवं चीन की भारी संख्या में सेना को देखकर उस चौकी के इंचार्ज ने सेना को पीछे हटने का आदेश दे दिया क्योंकि उन्हें हार सुनिश्चित दिख रही थी और परिस्थितियाँ भी उनके अनुकूल नही थी।

इनमें से एक जसवीर सिंह नामक सैनिक ने पीछे हटने से इंकार कर दिया उसका कहना था कि उसने अपनी माँ को वचन दिया है जान भी चली जाए परंतु पीछे नही हटूँगा और वह अकेला चौकी पर डटा रहा और चीनी सेना पर अंतिम गोली बची रहने तक फायरिंग करता रहा अंत में वह अंतिम सांस तक लड़ते हुये शहीद हो गया। उसका मृत शरीर जब उसके गांव लाया गया तो उसकी जेब से एक चिट निकली जिसमें लिखा था कि माँ में अपना वचन निभा रहा हूँ। उसकी वीरता एवं शौर्य गाथा की कहानी एक स्मारक के रूप में आज भी अंकित है। उसकी माँ ने उसे श्रद्धांजली देते हुए अपने दूसरे बेटे को भी भारतीय सेना में भेज दिया।

अरूणाचल प्रदेश के चप्पे चप्पे पर हर भारतीय सैनिक के शहीद होने की दास्तान गूँज रही है। तवांग में सैनिकों के प्रति श्रद्धांजली के स्वरूप में एक स्मारक बना है जिस पर लिखे हुए शब्द मुझे अंदर तक कचोट गये और मेरा अंतर्मन द्रवित हो गया। मेरे मन में तत्कालीन राजनेताओं के प्रति आक्रोश उबलने लगा उस स्मारक पर हमारी सेना की हार के पाँच प्रमुख कारण लिखे हुये थे।

एक तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की पंचशील के सिद्धांतों पर बेवजह अड़ा रहना दूसरा तत्कालीन विदेश मंत्री की अदूरदर्शिता और चीन की सेना की शक्ति को कम आँकने की अक्षमता तीसरा हमारे पास समुचित संचारतंत्र का ना होना चौथा हमारे पास अत्याधुनिक हथियारों का अभाव एवं पाँचवा सेना के युद्धाभ्यास की कमी एवं यह सोच कि हमारे ऊपर कोई आक्रमण नही करेगा।

75. दुखों के उस पार

जीवन के सपने यदि टूटते हैं तो घबराये नही सपनो को टूटने दे और आप पूरी ताकत के साथ उन सपनों को बुनने की कोशिश करें। जीवन में उम्मीद का दामन कभी नही छोडना चाहिए। विपरीत समय में मुश्किलें और परेशानियाँ तो सभी के जीवन का हिस्सा है, दुख भी सभी के हिस्से में है परंतु उसके पार जाना ही सफलता है। यह कथन है म.प्र. विद्युत मंडल में सेवारत् श्रीमती शशिकला सेन का।

वे बताती हैं कि उनका विवाह कम उम्र में ही हो गया था वे 25 वर्ष की उम्र होते तक 5 बच्चों की माँ बन गयी थी। उनके पति विद्युत मंडल में कार्यरत थे और एक दिन अचानक ही उनका निधन हो गया। उनकी इतनी कम उम्र में पति का ना रहना दो बेटे और तीन बेटियों की परवरिश करना सहज नही था। श्रीमती सेन आठवीं तक ही शिक्षित थी। उन्हें पति की स्थान पर चतुर्थ श्रेणी की नौकरी मिली जो उन्होने नही करने का निर्णय लिया।

विद्युत मंडल से जानकारी मिली की ग्यारवीं पास को ही तृतीय श्रेणी की नौकरी का पद मिल सकता है। शशिकला ने हार नही मानी उन्होने पहले ग्यारवीं पास करने का संकल्प लिया और पाँच बच्चों की परवरिश करते हुए कठिन परिस्थितियों में रहते हुए भी ग्यारवीं तक की पढ़ाई पूरी कर ली। ग्यारवीं उत्तीर्ण होने के उपरांत उन्होंने अनुकंपा नियुक्ति के लिए आवेदन किया और उन्हें तृतीय श्रेणी की नौकरी मिल गयी।

उनका कहना है उनके जीवन की सबसे बड़ी कमी यही थी कि उनके माता पिता ने आठवीं पास और कच्ची उम्र में ही उनकी शादी कर दी। यदि वे स्वयं संकल्प नही लेती तो कभी आगे नही पढ़ पाती और जीवन दूभर हो जाता। उन्होंने अपनी बेटियों को उच्च शिक्षा दिलायी और अपने गांव के दूसरे बच्चे बच्चीयों को भी उच्च शिक्षा के लिए प्रेरित किया। आज उनके रिश्तेदार, परिचित सभी के बच्चे उच्च शिक्षित हैं। उन्होंने नाबालिग विवाह की प्रथा को शासन से सहयोग लेकर अपने गांव में रोका और ऐसे परिवारों को वे आज भी अपना मार्गदर्शन दे रही हैं।

76. शिक्षा का दान महादान

डा. कामना श्रीवास्तव शिक्षाविद् और लेखिका हैं। उन्हें सृजन के गुण विरासत में ही मिले है। उनका कहना हैं कि जीवन में सत्साहित्य अध्ययन मनन का बहुत प्रभाव पड़ता है और आज वे जो कुछ भी हैं, अपने चिंतन, मनन एवं अध्ययन के कारण हैं।

कामना जी बताती हैं कि उनके घर के पास एक मध्यमवर्गीय परिवार किराए से रहता था। उनका एक बेटा और बेटी थे। इस परिवार में एक बार ऐसी स्थिति आ गयी कि उन दोनो बच्चों को आर्थिक संकट के कारण आगे की पढाई से वंचित होना पड़ा। एक दिन बातों बातों में जब यह जानकारी उन्हें मिली तो उन्होने उस पड़ोसी परिवार को समझाते हुए कहा कि आपकी बच्चे होशियार है आप किसी भी तरह उन्हें आगे पढाइये। पड़ोसी ने असमर्थता जताते हुए बताया कि उनकी आर्थिक स्थिति बिल्कुल भी ठीक नही हैं और वे किसी भी स्थिति में बच्चों को पढ़ा नही पायेंगें। यह सुनकर कामना जी ने उस परिवार के दोनो बच्चों के स्कूल की फीस, किताबों की खरीद और स्कूल की ड्रेस आदि का स्वयं प्रबंध कर दिया। इस प्रकार किसी तरह एक वर्ष व्यतीत हो गया और दोनो बच्चे भी उत्तीर्ण हो गए।

एक दिन अचानक ही बिना बताए उन्होने मकान खाली कर दिया। यह जानकर कामना जी को दुख हुआ कि वे कैसे लोग हैं जो बिना बताए, बिना मिले चले गए। इस घटना से कामना जी का मन व्यथित जरूर हुआ परंतु बात आई गई हो गई। इस घटना को बीते चार पाँच वर्ष हुये होंगे कि एक दिन उनके घर एक युवक मिठाई का डिब्बा लेकर आता है उसे देखते ही कामना उसे पहचान जाती है। वो कामना के पैर पडते हुए कहता है कि आंटी मेरा पी.एम.टी में चयन हो गया है, आप के सहयोग के कारण ही मेरी पढाई रूकी नही और आज मै मेडिकल कालेज में प्रवेश पाकर वहाँ पढ़ाई के लिए जा रहा हूँ। कामना ने अपना आशीर्वाद देते हुए उससे पूछा कि बिना बताए क्यों चले गए थे। उसने सिर झुकाकर रूंधे गले से केवल इतना ही कहा कि कुछ परिस्थितियाँ बताई नही जा सकती।

कामना ने बताया कि अब वह प्रतिवर्ष निर्धन और असहाय विद्यार्थियों की शिक्षा के लिए प्रयासरत् रहती है। इससे उन्हे आत्मिक शांति मिलती है। उनका कहना है कि खराब वक्त में किसी की मदद कर दी जाये तो कभी कभी उसका जीवन ही बदल जाता हैं।

77. संकल्प साधना

यदि हमारे मन में लगन विचारों में सकारात्मक सोच हो तो विपरीत परिस्थितियों को भी हम सुधार सकते हैं और ऐसी परिस्थिति में भी अपने व्यक्तित्व को निखारने की क्षमता रख सकते हैं। जीवन में कठिन परिश्रम करने का उत्साह एवं लगन हो तो जीवन सफल हो जाता है। शिक्षाविद् कवियत्री एवं आकाशवाणी की ख्यातिलब्ध बुंदेली उद्घोषिका श्रीमती प्रभा विश्वकर्मा ‘शील’ ने अपनी लगन एवं क्षमता से जो सफलता अर्जित की है वह प्रेरक है।

प्रभा विश्वकर्मा बुंदेलखंड की निवासी होने के कारण उनकी बोलचाल में बुंदेली भाषा का प्रभाव रहता है। बुंदेली भाषा हिंदी भाषा से अलग है, उसमें इते,उते जैसे ग्रामीण शब्दों का बहुत प्रयोग होता हैं। वह जब स्कूल में पढ़ती थी तो उन्हे बुंदेली बोलने के कारण मजाक का भी सामना करना पड़ा। प्रभा को बहुत बुरा भी लगता था किंतु उसकी जुबान में जन्मजात बुंदेलीपन होने के कारण उसे हटाना मुश्किल था।

शनैः शनैः उन्होंने हिंदी भाषा का गहन अध्ययन किया परंतु बुंदेली भाषा के प्रति असीम लगाव होने के कारण उन्होंने बुंदेली भाषा के प्रेम को छोड़ा नही। हिंदी के साथ साथ बुंदेली को भी अपनाते हुए साहित्य के विद्वानों की कृतियों का अध्ययन किया। अब उनका चयन बुंदेली भाषा के गहन अध्ययन एवं स्पष्ट बोलचाल के कारण आकाशवाणी के बुंदेली कार्यक्रम की उद्घोषिका के रूप में हो गया। आज प्रभा आकाशवाणी की गम्मत कार्यक्रम की चर्चित उद्घोषिका है।

उन्होंने बताया कि बचपन में उनकी बुंदेली भाषा के कारण उन्हें चिढ़ाया जाता था तभी से उन्होंने संकल्प ले लिया था कि वे अपनी क्षेत्र की मातृभाषा में ही आगे बढ़ेंगी जिसका परिणाम यह हुआ कि वे आज बुंदेली बोलने के कारण ही प्रतिष्ठित हुयी हैं। वे कहती हैं कि हमे अपनी मातृभाषा के प्रति सम्मान एवं गौरव रखना चाहिये। यदि व्यक्ति ठान ले तो वह किसी भी क्षेत्र में सफल हो सकता है। प्रभा ने अपने संकल्प के कारण अपनी मातृभाषा बुंदेली की लिये संघर्ष किया और वे इसमें सफल रहीं।

78. दृढ़ संकल्प

श्री सुनील गर्ग शहर के एक सुप्रसिद्ध व्यक्ति हैं। आपका कंस्ट्रक्शन का व्यवसाय हैं एवं आप नालंदा पब्लिक स्कूल के डायेक्टर हैं। आप संयुक्त परिवार के मूल्यों में विश्वास रखते हैं एवं वर्तमान में अपने भाइयों के साथ संयुक्त परिवार में रहते है। गर्ग जी भारतीय संस्कृति और आयुर्वेद में भी काफी रूचि रखते हैं एवं लोगों को उचित आयुर्वेदिक परामर्श देकर उनकी स्वास्थ्य समस्याओं का काफी हद का निवारण भी करते हैं। उन्होने बताया कि आयुर्वेद के प्रति इतनी गहरी रूचि का कारण उनकी माँ हैं।

उन्होने बताया कि एक बार उनकी माताजी को हार्ट अटैक हुआ, उन्हें जबलपुर मार्बल सिटी हास्पिटल में 7 दिनों तक भर्ती रखा परंतु स्थिति में सुधार ना होता देखकर डाक्टरों ने उन्हें बाइपास सर्जरी हेतु दिल्ली रिफर कर दिया। उनकी हालत अत्याधिक नाजुक थी। दिल्ली पहुँचने पर वहाँ के एस्कार्ट हास्पिटल में भर्ती किया गया एवं सारे टेस्ट होने के बाद डाक्टर ने कहा कि आपकी माताजी की बाइपास सर्जरी नही हो सकती क्योंकि उनका हार्ट सिर्फ 18 प्रतिशत ही कार्यशील था। वहाँ के डाक्टर ने कहा कि बाइपास सर्जरी करवाने से कोई फायदा नही होगा आप जबलपुर ले जाकर इनकी सेवा करें और भगवान पर भरोसा रखे।

उस दिन गर्ग जी ने अपने मन में ठान लिया कि चाहे कुछ भी हो जाए मुझे अपनी माताजी को स्वस्थ्य करना है। उसके बाद उन्होने कई आयुर्वेदिक ग्रंथो एवं अन्य कई स्वास्थ्य पद्धतियों का गहन अध्ययन किया एवं कुछ नुस्खों का प्रयोग उन्होंने माताजी पर किया। कुछ समय लगातार आयुर्वेदिक औषधि सेवन के उनके स्वास्थ्य में अभूतपूर्व अंतर नजर आने लगा एवं वे पहले की तरह काफी हद तक स्वस्थ्य हो चुकी थी।

उनके इस प्रयोग से उनकी माताजी को नवजीवन प्राप्त हुआ था। इसके बाद उन्होंने और भी कई परिचित और रिश्तेदारों को भी अपना परामर्श दिया जिससे वे लोग भी स्वास्थ लाभ लेने लगे। श्री गर्ग जी के अपने इस सेवाकार्य को बिल्कुल निशुल्क रखते हैं। उनका कहना है कि यदि व्यक्ति मन में दृढ़ संकल्प करके कार्य में लग जाए तो कोई भी चीज दुनिया में असंभव नही हैं।

79. जीवन का वह मोड़

सुप्रसिद्ध दंत चिकित्सक डा. राजेश धीरावाणी का मानना है कि जीवन में अनेको बार इंसान की जिंदगी में ऐसे मोड़ आते हैं जब उसे अपने विवेक के अनुसार निर्णय लेना होता है। उसके मन में कई विचार उठते हैं और उनके समाधान के लिए उसे अपने मित्रों, बुजुर्गों एवं अनुभवी लोगों से सलाह मशविरा करने के बाद भी कोई निर्णय लेने में संशय बना रहता है।

मुंबई के प्रतिष्ठित महाविद्यालय से दंत चिकित्सा में स्नातकोत्तर परीक्षा सर्वाधिक अंकों से उत्तीर्ण करने के उपरांत उन्हे उसी विभाग में व्याख्याता के पद पर नियुक्ति मिल गयी। एक वर्ष के उपरांत उन्होंने जसलोक हास्पिटल में जूनियर कंसल्टेंट के रूप में मैक्सीलोफेशियल सर्जरी विभाग में वरिष्ठ सर्जनों के सान्निध्य में उन्हें कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। वहाँ कार्य करते हुए कुछ माह ही बीते थे तभी उनको एम.डी.एस की परीक्षा में अव्वल आने की वजह से मियामी विश्वविद्यालय अमेरिका ने अपनी फैलोशिप के लिये आमंत्रित किया जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। जसलोक हास्पिटल ने उन्हें दो वर्ष के लिए अमेरिका जाने की अनुमति दे दी पंरतु शर्त यह रखी कि वापिस लौटने पर उन्हें उसी हास्पिटल में सीनियर कन्सलटेंट के पद पर कार्य करना होगा। वहाँ से वापिस आने के उपरांत उन्होंने पुनः जसलोक हास्पिटल में सीनियर कंस्लटेंट के रूप में कार्य करना प्रारंभ कर दिया। वहाँ कार्य करते हुए उन्हें समृद्धि, प्रतिष्ठा के साथ साथ कार्य से संतुष्टि भी मिल रही थी। उनकी इन सफलताओं से उनके माता पिता, भाई बहन, मित्र, रिश्तेदार और शुभचिंतक सभी खुश होकर गर्व का अनुभव करते थे।

उनके जीवन में अहम मोड तब आया जब वे अवकाश पर अपने गृहनगर जबलपुर आये। उनके परिवार के करीबी एवं हितेषी, जाने माने पत्रकार और शिक्षाविद् एवं डा. धीरावाणी के प्रेरणा स्त्रोत श्री रामेश्वर प्रसाद गुरू ने उनसे आग्रह किया कि उच्च शिक्षा एवं अनुभव प्राप्त करने के उपरांत तुम जिस मिट्टी में पले बढ़े हो उसे ना भूलकर यहाँ की पीड़ित मानवता की सेवा के लिए वापस आना चाहिए। उन्होंने कहा कि इंसान में अगर काबिलियत हो तो अपना कार्यक्षेत्र कहीं भी बनाकर सफल हो सकता है। तुम्हे इस क्षेत्र की जनता की सेवा का बीड़ा उठाना चाहिए और साथ ही अपने माता पिता के सानिध्य एवं उनकी सेवा करने का सौभाग्य भी नही गँवाना चाहिए। उनके माता पिता की भी यही इच्छा थी। उन्होंने कई प्रेरणास्पद बाते कही जिसका गहरा असर उनके अंतर्मन पर हुआ। अवकाश के दौरान वे काफी विचलित रहे एवं लगातार चिंतन करते रहे कि यहाँ उनका क्या भविष्य होगा जबकि वहाँ मुम्बई में वे पूरी तरह स्थापित हो चुके थे। उन्हें विचलित देख उनकी माताजी ने कहा कि तुम्हें जो उचित लगे वह करो। उनके मन में अनेकों विचार आते रहे परंतु अंततः जबलपुर की माटी के कर्ज को चुकाने के कर्तव्य एवं माता पिता के प्रति स्नेह और उनकी खुशी के आगे उनके अंतर्दवंद की हार हुई एवं उन्होंने जबलपुर का कार्यक्षेत्र बनाने का निर्णय ले लिया।

जब यहाँ उन्होंने प्रेक्टिस आरंभ की तो ईश्वर कृपा से उन्हें जरा भी संघर्ष नही करना पड़ा। समय के साथ जबलपुर एवं आसपास के क्षेत्रों के लोगों में उनके प्रति असीम विश्वास एवं श्रद्धा के भाव पैदा हो गये। काम के प्रति ईमानदारी, निष्ठा, समर्पणभाव की वजह से उनकी प्रसिद्धि काफी दूर दूर तक फैल गयी। कुछ समय पश्चात उन्होंने एक हास्पिटल की स्थापना की जो इस क्षेत्र के लोगो के लिए महत्वपूर्ण चिकित्सा संस्थान बना जिसकी उन्होंने स्वप्न में भी कल्पना नही की थी। साल दर साल इसमें आधुनिक चिकित्सा विद्यायें जुड़ती गयी और यह हास्पिटल जबलपुर की एक पहचान बन गया।

वे कहते हैं कि यदि वे मुंबई को ही अपना कार्यक्षेत्र बनाते तो शायद धन और स्वयं के लिये नाम कमाते परंतु पीड़ित मानवता की विभिन्न प्रकल्पों के माध्यम से जो सेवा का मौका मिला उससे वंचित रहना पडता। वे कहते है कि बुर्जर्गों के अनुभव एंव उनकी सलाह हर नौजवान व्यक्ति को मानकर अपने जीवन को सफल बनाने की दिशा में आगे बढ़ना चाहिए। व्यक्ति का प्रारब्ध निश्चित होता हैं परंतु सत्कर्म करने से इंसान अपनी किस्मत को बदल सकता है। ईमानदारी, उचित सलाह, सत्कर्म, कार्य के प्रति समर्पण एवं चिकित्सक की हमेशा मरीजों के लिए उपलब्धता सफलता के मंत्र है जिसे हर चिकित्सक को आत्मसात् करना चाहिए।

80. वे शब्द

डा. श्रीमती वर्षा संघी जो कि अंग्रेजी में पी.एच.डी. हैं का कथन है कि वे अपनी माँ से बहुत प्रभावित है और वे ही उनकी प्रेरणास्त्रोत रही है। उन्हें अपनी माँ के वचन अभी भी स्मृति में हैं कि मानव जीवन की सार्थकता तभी है जब वह अपने जीवन में कुछ ऐसा करें जिससे उसके स्वयं के चरित्र में निखार आ सके और अपने द्वारा समाज को भी सकारात्मक सृजन दे सके।

वे कहती हैं कि कई वर्ष पूर्व उनके जीवन में ऐसी घटना घटी जिससे उनके जीवन की दिशा बदल गई। उनकी माँ कहती थी कि स्वाभिमान और आत्मसम्मान के साथ कभी भी समझौता मत करना। उन्होने अपने साथ घटी एक घटना के विषय में बताया कि उनके एक निकट के रिश्तेदार दूसरे शहर में रहते थे, उनके पास से कुछ जरूरी दस्तावेज लाने थे इसलिए उनकी माँ उन्हें और उनके साथ उनकी छोटी बहन को वहाँ भेजा।

उस वक्त हम जीवन के उस काल में प्रवेश कर चुके थे जहाँ मन स्वयं ही बहुत तीव्र गति से बातें व वातावरण को समझ लेता है और यदि मन संवदेनशील होता है तो उसे तनिक सी चोट से भी गहरे आघात जैसा अनुभव होता हैं। ऐसा ही अनुभव उन्हें वहाँ उनके रिश्तेदार के यहाँ हुआ। वे चाय की चुस्कियों के साथ अपने रिश्तेदार से बातें कर रही थी तभी टेबल पर पड़ा अंग्रेजी समाचार पत्र उन्होने पढ़ा एवं एक वाक्य जोर से बोलने लगी, उनकी बात समाप्त होने के पूर्व ही उनकी रिश्तेदार ने उन्हे टोक दिया और रूखेपन से कहा कि तुम यह नही पढ़ पाओगी और इस वाक्य का भावार्थ उनकी बेटी स्कूल से आने के बाद बता देगी।

उन्हें यह सुनकर गहरा धक्का लगा कि उनके रिश्तेदार उन्हें अंग्रेजी में इतना कमजोर समझते हैं, जबकि उन्हे मालूम है कि वे बचपन से ही अंगे्रजी माध्यम से ही शिक्षित है। इससे उनके आत्मसम्मान को बडी गहरी ठेस पहुँची और वे अपना कार्य समाप्त करके तुरंत ही वहाँ से लौट गयी। रास्ते में उन्होने निर्णय लिया कि वे अंग्रेजी में एम.ए. करेंगी। उन्होने आगे ऐसा ही किया और अंग्रेजी में पी.एच.डी की उपाधि प्राप्त करके अग्रेंजी की प्रोफेसर हो गई।

वे कहती है कि अपनी रिश्तेदार के कटाक्ष के कारण ही आज इस पद पर पहुँची है। वे आज की आधुनिक युग की पीढ़ी को अंगे्रजी के अधययन के साथ साथ नैतिक मूल्यों की भी शिक्षा दे रही हैं। उनका मानना हैं कि क्या पता कौन सी अच्छी बात विद्यार्थियों के लिए जीवनोपयोगी प्रेरणा बन जाए।

81. जीवन का सच

वरिष्ठ कवियत्री तथा लेखिका, म.प्र.लेखिका संघ की अध्यक्ष श्रीमती अर्चना मलैया ने भावनात्मक होते हुये एक घटना के विषय में बताया। यह बात उस समय की है जब वे बी.ए. अंतिम वर्ष की छात्रा थी, उन्होंने अपनी कक्षा में प्रवेश ही किया था कि पता चला कि हिंदी साहित्य की व्याख्याता के एकमात्र भतीजे की दो दिन पूर्व नदी में डूब जाने से अकाल मृत्यु हो गयी। हम सभी मन से दुखी हो गये थे। हमने देखा की वे व्याख्याता मेडम प्रतिदिन की तरह कक्षा में पढ़ाने हेतु आ रही थी। हम आश्चर्य में डूबे हुए अपनी अपनी सीटों पर बैठ गये। उन दिनो कक्षा में श्री सुमित्रानंदन पंत जी की परिवर्तन कविता पर व्याख्यान चल रहा था मेडम ने गंभीर आवाज में कविता पाठ प्रारंभ किया:-

खोलता इधर जन्म लोचन

मूँदती उधर मृत्यु क्षण क्षण.......

इसकी दो पंक्तियाँ भी पूरी ना हो पायी थी कि उनका कंठ अवरूद्ध हो गया हम लोगों ने सांत्वना भरे स्वर में उनसे निवेदन किया कि मेडम कृपया आज मत पढ़ाइये हम सभी आप के इस दुख में सहभागी है। वे स्वयं को संभालने एवं संयत करने का प्रयास कर रही थी परंतु अचानक उनकी आँखों से वेदना के आँसू टपकने लगे। कक्षा लगभग समाप्ति की ओर थी और अर्चना मलैया ने किताबों को एक ओर खिसकाकर दोनो हाथों से अपना सिर थाम लिया और संवेदनाओं के उस प्रचंड ज्वार में स्थिर नही रह पायी तभी घंटी बजी कक्षा समाप्त हुयी और सभी मेडम को वहाँ अकेला छोड एक साथ बाहर निकल आये।

वे जब भी इस घटना को याद करती हैं तो उनके मन यह विचार आता है कि वे इस घटना में मर्माहत मेडम को अकेले छोडकर सब के साथ कक्षा से बाहर क्यों आ गयी। उन्हें उनके दुख में सहभागी बनना था और सांत्वना देकर उनके दुख को कम करने का प्रयास करना चाहिए था। वे यह भी सोचती हैं कि जीवन में हमें सद्कार्य निरंतर करते रहने चाहिए जिससे जीवन सफल हो सके क्योंकि मृत्यु सुनिश्चित हैं परंतु कब यह कोई नही जानता ?

82. बिटिया से बनी पहचान

एलायंस क्लब इंटरनेशनल की जबलपुर मिड टाऊन शाखा के पूर्व अध्यक्ष नवनीत राठौर एवं सचिव श्रीमती वर्षा राठौर का कथन है कि उनके जीवन में वह सर्वाधिक प्रसन्नता का दिन था जब उन्हें कन्यारत्न के रूप में वंशिका की प्राप्ति हुयी। उनके मन में मनोकामना थी कि एक दिन बड़ी होकर यह इतना नाम कमाये कि उसके नाम से उनका नाम जाना जाए।

वे कहते हैं कि जब वह तीसरी कक्षा में ही थी तो उसका रूझान चित्रकला की तरफ हो गया था। वह अपनी पेंसिल से कागज पर चित्रकारी करती रहती थी हम दोनो ने उसे प्रेरणा देने एवं इस कला में आगे बढ़ने में कोई कमी नही रहने दी। वह धीरे धीरे बड़ी होती गयी और पेंसिल का स्थान ब्रश ने ले लिया और रंगों का उपयोग वह अपने मन से स्वमेव करने लगी। अब धीरे धीरे उसका हाथ सध गया और विभिन्न प्रतियोगिताओं में सफलता अर्जित करना प्रारंभ हो गया। इतनी कम उम्र में ही उसकी चित्रकारी में परिपक्वता नजर आने लगी। वंशिका के कक्षा दसवीं मे आने तक उसकी एकल चित्रकला प्रदर्शनी का आयोजन होने लगा और साथ ही साथ साहित्यिक कृतियों के मुखपृष्ठ भी उसके द्वारा बनाए जाने लगे आज राठौर दंपत्ति को लोग उनकी बेटी वंशिका के नाम से जानते हैं।

उनका मानना है कि बेटे और बेटी दोनो ही अपने परिवार का नाम रोशन कर सकते हैं आज के युग में संकीर्ण मानसिकता से ऊपर उठकर पुत्री के विकास पर भी उतना ही ध्यान व योगदान देना चाहिए जितना पुत्र के लिए देते है। लड़कियों में भी विलक्षण प्रतिभा होती हैं आवश्यकता है कि उनकी प्रतिभाओं को बिना किसी भेदभाव के उभारने का अवसर प्रदान किया जाए।

83. आत्मीयता

सुप्रसिद्ध साहित्यिक रचनाकार डा. श्रीमती तनुजा चैधरी जो कि शासकीय विज्ञान महाविद्यालय में हिन्दी विभाग की विभागाध्यक्ष के साथ साथ व्याख्याता भी है, वे मानवीय अनुभूति के संबंध में कई साल पहले हुई एक घटना का स्मरण करके भाव विभोर हो गई। वे बताती हैं कि किसी साहित्यिक संबंध में सुप्रसिद्ध कथा लेखिका मन्नू भंडारी जी से दिल्ली में मुलाकात हुई, वे उनके द्वारा निर्धारित समय पर उनके निवास स्थान पर पहुँच गई परंतु रास्ते में दिल्ली की ठंड से वे एवं उनकी पुत्री ठिठुर रहे थे।

उस दिन ठंड इतनी ज्यादा थी कि दिन में भी गहरा कोहरा छाया हुआ था और तापमान भी बहुत कम था। उन्हें उनकी गलती का अहसास हो रहा था कि ऐसे मौसम में मोजे और दस्तानों का उपयोग करना चाहिए था। मन्नू जी के घर पहुँचने पर उनकी सेविका ने उनके व्यवस्थित एवं अभिजात्य दिखने वाले बैठक खाने में बिठाया। थोड़ी देर बाद मन्नू जी आयी और अत्यंत आत्मीयता से मिली। तनुजा जी की बेटी ठंड के कारण हाथ पे हाथ रखकर शाल के अंदर बैठी हुयी थी।

यह देखकर उन्होंने उसका हाथ अपने हाथ से बाहर निकालकर वे बोली कि तुम्हारा हाथ तो बहुत ठंडा है और तुम काँप भी रही हो ऐसे में बीमार पड़ जाओगी। वे उन दोनो को लेकर अपने बेडरूम में चली गयी और सेविका से कहकर एक हीटर मंगवाया और बच्ची का हाथ अपने हाथ में रखकर हीटर के पास बैठ गयी और बहुत स्नेहपूर्वक आत्मीयता से उसके हाथ को रगड़कर उष्मा प्रदान करने लगी। तनुजा जी बताती हैं कि दोनो के बीच पारिवारिक एवं साहित्यिक चर्चाएँ समाप्त होने के बाद वे वहाँ से अपने घर रवाना हो गयी।

वे रास्ते भर मन्नू भंडारी जी के आत्मीयता से परिपूर्ण व्यवहार के प्रति बहुत आभार महसूस कर रही थी और मन मे सोच रही थी कि देश की विख्यात लेखिका कितनी सरल, मिलनसार एवं करूणामयी है जिन्होने स्वयं पूरे समय तक बेटी का हाथ अपने हाथो में थाम कर रखा। ऐसी आत्मीयता और सद्भाव बिरले ही लोगों में देखने को मिलता है।

84. आत्मविश्वास से सफलता

श्रीमती शिवाली अग्रवाल जो कि एक महिला उद्यमी है। वे 4 सीजन्स नामक बेकरी की मालिक है। उन्हें बचपन से ही जब वे स्कूल में पढ़ती थी, तरह तरह के व्यंजन बनाने, पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से नई नई चीजें सीखने एवं रसोई घर में नये नये प्रयोग करने में बहुत आनंद आता था। उनके विवाह के पश्चात भी उनकी रूचि व्यंजन के क्षेत्र में बनी रही इसी तारतम्य में वे अपने परिचित लोगों के बीच नये नये व्यंजन बनाकर उनकी राय जानने का प्रयास करने लगी।

उनके व्यंजन सभी के द्वारा बहुत पसंद किये गये और यही से पे्ररित होकर उनके मन में इसे व्यवसायिक रूप देने का विचार आया। ससुराल वालों के प्रोत्साहन से उनका आत्मविश्वास और बढ़ गया और उन्होने इसे व्यवसायिक रूप देने का निर्णय ले लिया। सन् 2000 में अपनी स्वयं की मेहनत, लगन, परिश्रम एवं परिवारजनो के सहयोग से 4 सीजन्स नाम की बेकरी की शुरूआत की। वे कहती हैं कि उनके यहाँ कार्यरत कर्मचारियों का कार्य के प्रति समर्पित सेवाभाव, दक्षता व अनुषासित वातावरण ने उनकी बेकरी के उत्पादन को शहर की अग्रणी पंक्ति में ला दिया है।

उनका मानना हैं कि किसी भी उत्पाद में गुणवत्ता बहुत महत्वपूर्ण होती है एवं इसी से ग्राहकों के बीच विश्वसनीयता बनती है। उनका कहना हैं कि स्वतंत्र व्यक्तित्व, कड़ी मेहनत और कार्य करने का जुनून, ये तीनों उनकी सफलता के मूल मंत्र हैं। वे प्रतिदिन अपने अनुभवों के आधार पर बेहतर से बेहतर कार्य करने की कोशिश करती हैं क्योंकि उनका मानना है कि सफलता का कोई अंत नही होता हैं।

85. महिलाएँ आत्मनिर्भर बनें

श्रीमती अर्चना भटनागर एक जीवट, संघर्षशील व सफल महिला उद्यमी हैं। वे हेलाइड केमिकल की मैनेजिंग डायरेक्टर एवं म.प्र. एसोसियेशन आफ वूमन एंटरप्रेनर्स ( मावे ) की अध्यक्ष है। वे कहती है कि जीवन में असफल होना ही सफलता की बुनियाद है। उन्होंने केमेस्ट्री में मुंबई विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त की जिससे उन्हें उद्यमिता में बहुत सहायता मिली। पी.एम.टी में उत्तीर्ण होने के बाद भी उन्होंने मेडिकल कालेज की पढाई ना करके उद्योग की दिशा में चिंतन करना प्रारंभ किया।

उनका विवाह 20 वर्ष की आयु में ही संपन्न हो गया था एवं उनके पति ने उनको आश्वस्त किया था कि विवाह जीवन का अंत नही है, यह एक नये जीवन का प्रारंभ है एवं वे पुरूष और महिला में समानता की भावना रखते है। श्रीमती भटनागर ने अपने पति से धीरे धीरे व्यापार करने के गुर सीखे और उनसे प्रोत्साहित होकर अपने स्वयं का उद्योग स्थापित करने की दिशा में कदम बढ़ाया। जब उन्होंने बैंक से कर्ज हेतु संपर्क किया तो वे आश्चर्यचकित हो गयी कि उन्हें बैंक लोन हेतु एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ा। उन्होंने अपने कठिन परिश्रम, ईमानदारी एवं गुणवत्ता के कारण अपने व्यापार में सफलता पाकर दिन दूनी रात चैगुनी प्रगति की। वे आफसेट प्रिंटिंग प्रेस में लगने वाले केमिकल का उत्पादन करती थी।

एक दिन उन्होंने निर्णय लिया कि वे अपने अनुभव को महिलाओं के बीच बाँटकर उन्हें उद्यमिता के क्षेत्र में आगे बढ़ायेंगी और इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए उन्होंने मावे नामक संस्था का गठन किया। इस संस्था के माध्यम से उद्यमिता में रूचि रखने वाली महिलाओं को उनके उत्पादन हेतु तकनीकि जानकारी एवं उनके उत्पाद की बिक्री हेतु समुचित सहयोग प्रदान किया जाता है। इस संस्था का उद्देश्य हैं कि महिलायें स्वावलंबी एवं आत्मनिर्भर बनें।

86. नेत्रहीन की दृष्टि

म.प्र. की निवासी श्रीमती निधि नित्या को जनवरी 2016 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय द्वारा आयोजित कार्यक्रम 100 विमेन अचीवर्स अवार्ड से माननीय राष्ट्रपति जी के द्वारा सम्मानित किया गया था। वे अंतर्राष्ट्रीय स्तर की लेखिका के रूप में जानी जाती है। उन्होंने एक हृदय स्पर्शी प्रेरणादायक घटना के विषय में बताया।

वे बताती हैं कि उनकी सोनाली से मुलाकात नई दिल्ली के होटल सम्राट में हुई जहाँ उन सभी 100 वूमन्स अचीवर्स के रूकने की व्यवस्था की गई थी। सोनाली बहुत शांत और खामोश थी। पहले उनकी समझ में नही आया कि उस बेहद खूबसूरत आवाज के पीछे कितना दर्द छिपा हुआ है। सोनाली हर तरह की चर्चा में बराबर भाग ले रही थी। कुर्सी पर बैठे हुए वह बेहद जहीन समझ में आ रही थी। टेबल पर लग चुके भोजन की तरफ जब वे साथ आये व्यक्ति का हाथ पकड़कर बढ़ी तब समझ आया की उन्होंने काला चश्मा दरअसल ज्योतिविहीन आँखों को छुपा लेने के लिए लगाया है। उनके साथ आए सज्जन उनके पति थे। निधि नित्या का मन नही माना और वे जा पहुँची उनके पास ये जानने के लिए की उन्होने अपने चेहरे को दुपट्टे से क्यों ढाँक रखा है। सोनाली ने बिना किसी झिझक के अपनी आप बीती उन्हें सुनाई। उसे सुनकर उनके होश फाख्ता हो गये।

निधि जी ने बताया कि सोनाली झारखंड की रहने वाली थी। ज्यादातर उनका नाम “ एसिड विक्टम 2003 “ के नाम से जाना जाता है। ये नाम उन्हें उस वक्त मिला जब सोनाली महज 17 साल की थी। बेहद खूबसूरत और प्रतिभाशाली सोनाली स्कूल, कालेज में अपनी रचनात्मक गतिविधियों के लिए जानी जाती थी। वे एन.सी.सी की बटालियन कमांडर थी और रायफल से सटीक निशाने लगाती थी। देश भक्ति का जज्बा और समाज के लिए कुछ कर गुजरने का जुनून उनके अंदर था। सोनाली जब यूनिफार्म पहनकर मोहल्ले में निकलती तो मनचले लड़के बस देखते रह जाते। वो बार बार सोनाली से दोस्ती करने की कोशिशे करते और सोनाली उनको डपटकर भगा देती। जब लड़कों की छेड़छाड़ बहुत अधिक बढ़ने लगी तो सोनाली ने ये बात अपने पिता को बताई। सोनाली के पिता ने तीनों मनचले लड़कों को जमकर डाँट लगाई। एक दिन सोनाली अपने परिवार के साथ छत पर सो रही थी कि अचानक इन लड़कों ने आकर उसके ऊपर तेजाब डाल दिया। सोनाली का सारा शरीर जलने लगा। पिता किसी तरह स्कूटर पर बैठाकर उसे अस्पताल ले गए।

सुबह होने तक सोनाली की सारी दुनिया अंधेरे मे डूब गयी। एसिड से उसकी आँखों की रोशनी हमेशा के लिए चली गयी। चेहरा बुरी तरह बिगड़ गया। बिना सहारे के सोनाली चल भी नही पाती थी। इतना सब होने के बाद भी मनचले सोनाली और उनके परिवार को धमकाते रहे। सोनाली ने खुद को संभाला और कोर्ट में पुकार लगायी की या तो अपराधियों को सजा दी जाए या उसे मृत्यु दी जाए। दोषियों को 9 साल की सजा सुनाई गयी।

सोनाली के लिए उसका अंधापन बहुत बड़ी समस्या थी क्योंकि जो जन्म से नेत्रहीन होते हैं उनको एक आभासी शक्ति जन्म से प्राप्त होती है पर सोनाली ने अपनी आँखों से दुनिया देखी थी इसलिए उनके लिए बिना आँखों के चलना पढ़ना अधिक कठिन था। लोग उनसे दूर भागते, उनके चेहरे से घृणा करते, उनका तिरस्कार करते लेकिन उन्होने हिम्मत नही हारी ओर ब्रेल लिपि को सीखकर आगे की पढ़ाई जारी रखी। नेत्रहीनों के लिए बने साफ्टवेयर की मदद से उन्होंने कंप्यूटर पर काम करना सीखा।

कई पीड़ादायक फेस सर्जरी से गुजरने के बाद आज भी उनका इलाज जारी है। इतने पर भी सोनाली कहती हैं कि मुझे समाज और सरकार से कोई शिकायत नही है। सोनाली ने समाज में सोशल विक्टिम्स के लिए काम करना शुरू किया। उन्होंने एसिड अटैक विक्टिम्स को मोटिवेट करना शुरू किया। उन्हें नारी शक्ति व अदम्य साहस के पुरूस्कार प्राप्त हुए। अभी तक सोनाली 1000 से अधिक नेत्रहीनों और समाज द्वारा पीड़ितों को स्थापित कर चुकी हैं। आज सोनाली दो राष्ट्रीय एन.जी.ओ. की ब्रांड एम्बेस्डर हैं, मोटिवेटर हैं और सोसाइटी विक्टिम्स के लिए रोल माडल हैं। उनका मिशन नेत्रहीन लडकियों के लिए रोजगार और साधन उपलब्ध कराना है। आज उनसे प्रेरणा पाकर कुछ नेत्रहीन लडकियाँ बैंक पी.ओ. है, टीचर हैं, और कुछ नेत्रहीन लडकियाँ प्राइवेट कंपनियों में जाब कर रही हैं। सोनाली स्वयं झारखंड में शासकीय संस्थान मे कार्यरत हैं। 2015 में पेशे से साफ्टवेयर इंजीनियर चितरंजन तिवारी ने उनसे शादी की। सोनाली को उनके कार्यों के लिए राष्ट्रीय पुरूस्कार प्राप्त हुए और 2016 में भारत की प्रथम 100 महिलाओ के साथ राष्ट्रपति द्वारा सम्मानित हुई।

सोनाली के साथ राष्ट्रपति भवन में माननीय राष्ट्रपति के साथ भोजन करते हुए निधि नित्या ईश्वर को धन्यवाद कर रही थी कि भारत की प्रथम 100 महिलाओं में चुना जाना उस दिन उन्हे सार्थक लगा जब सोनाली जैसी जीवट महिला से उन्होंने जीवन का सबक सीखा। समाज सुंदरता के पीछे भागता है पंरतु सोनाली सुंदरता के सारे मापदंडों को तोडते हुए इंसानियत का चेहरा समाज को दिखाती है।

87. आत्मनिर्भरता

विकास ग्रुप आफ इंडस्ट्रीज के मैनेजिंग डायरेक्टर सुबोध कुमार जैन कहते है कि प्रेरणा के स्त्रोत अनंत हैं और ये चारों ओर उपलब्ध हैं। कभी कभी छोटी छोटी घटनायें भी हमारे जीवन की प्रेरणा स्त्रोत बनती हैं। वे एक बार अमेरिका की यात्रा के दौरान तीन दिन तक अपने एक मित्र के निवास स्थान न्यूजर्सी मे उनके साथ रहे।

वे यह देखकर बहुत प्रसन्न हुये कि उनके मित्र, उनकी धर्मपत्नी, पुत्र 16 एवं पुत्री 21 वर्ष एक साथ भारतीय संस्कृति के अनुरूप रहते थे। उनके यहाँ तीन दिन रहने के पश्चात, जब उनके विदा होने का समय आ गया तो वे विशेष रूप से उनकी पुत्री से बोले कि आपके यहाँ ऐसा महसूस ही नही हुआ कि हम भारत के बाहर विदेश में है। उसने जवाब दिया कि अंकल क्षमा करें आप मेरे घर पर नही मेरे मम्मी पापा के घर पर आये हैं। अगली बार आप मेरे पास न्यूयार्क आकर रहेंगे तो आपको और भी अच्छा लगेगा।

यहाँ ध्यान देने की बात यह है कि उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि उस लड़की ने केवल 21 वर्ष की उम्र में ही काम करना षुरू कर अपने स्वतंत्र विचारों को अपनाकर अपनी कार्यक्षमता पर आत्मविश्वास दिखाया। इससे हमें यह प्रेरणा मिलती हैं कि हमें अपनी कार्यक्षमता पर विश्वास रखकर जीवन में आगे बढ़कर स्वावलंबी बनना चाहिए इसी में जीवन का पूर्ण आनंद हैं। वे अंत में यही कहते हैं कि आत्मनिर्भरता को अपनायें और अपने जीवन को सफल बनाए।

88. वर्तमान में जिए

श्रीमती श्वेता सिंह, चेयरमेन उद्योग एवं सहकारिता समिति, जिला पंचायत जबलपुर का कथन है कि उनका बचपन, उनके पिताजी के भारतीय सेना में कार्यरत होने के कारण बहुत ही अनुशासित एवं सीमित दायरे में था। उनकी स्कूली शिक्षा आर्मी कैंपस में ही हुई। स्कूली शिक्षा पूरी होने के उपरांत उन्होंने कालेज जाना प्रारंभ कर दिया। वहाँ के वातावरण से उन्होंने महसूस किया कि सिविल और सेना की सोच में बहुत अंतर हैं। सेना में जहाँ देश के लिए समर्पण और देशभक्ति की भावना कूट कूट कर भरी हुई हैं वहीं सिविल आबादी सेना की विचारधारा से अनभिज्ञ है एवं वे इसे तानाशाही के रूप मानते हैं।

ये घटना बेंगडूबी की है जो कि सिलीगुड़ी के नजदीक आर्मी का बेस कैंप हैं। उनके पिताजी कर्नल एस. के जैन कमांडेंट आफीसर के पद पर कार्यरत थे। उसी समय पाकिस्तान ने कारगिल में घुसपैठ आरंभ कर दी और भारतीय सेना द्वारा उसके प्रतिरोध करने पर युद्ध की स्थिति निर्मित हो गयी। उनके पिताजी को कारगिल के लिए सैनिकों को भेजने का प्रबंध तुरंत करने का निर्देश प्राप्त हुआ। श्रीमती श्वेता सिंह को उस समय बहुत आश्चर्य हुआ कि एक नौजवान सैनिक जिसका विवाह एक साल पूर्व ही हुआ था और वह पिता बनने वाला था, उसने छुट्टी के लिए निवेदन भी किया हुआ था, लगातार उनके पिताजी से जिद कर रहा था कि वह देश की रक्षा के लिए युद्ध में जाना चाहता है। उसकी पारिवारिक परिस्थितियों को देखते हुये कर्नल साहब उसे समझा रहे थे कि वह युद्ध मे ना जाकर अपने गृहनगर चला जाए परंतु वह सैनिक अपनी बात पर अड़िग था और अंततः विवश होकर उन्हें उसको अनुमति देनी पड़ी।

श्वेता सिंह कहती हैं कि इससे उन्हें प्रेरणा मिली की हमें समय की आवश्यकता के अनुसार अपने जीवन को जीना चाहिए यदि युद्ध का समय हैं तो हमें लड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए और यदि शांति का समय है तो आनंद से रहना चाहिए।